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हमारे धार्मिक, सामाजिक वा व्यावहारिक संशोधन

श्रेयस्कर मार्ग जान पड़ता था। अस्तु, लड़कियों के देने के लिये नित्य कलह करने, और कई सहस्न प्राणनष्ट करने के स्थान पर यह समझ कर कि "न रहेगा बांस, न बाजैगी बाँसुरी" जन्मते ही लड़कियों को किसी भाँति जी कड़ा कर मार डालना तो एक और बात थी, परन्तु एक जाति में निष्प्रयोजन भी इस प्रकार की प्रथा प्रचरित हो जानी कैसी कुछ विलक्षण पशुता थी! यद्यपि ये कुचाले अंगरेजी राजनियमों ही के द्वारा सम्प्रति नष्ट हुई, परन्तु इममें भी सन्देह नहीं कि जो समय अब है उसमें स्वयम् भी वे कुरीतियाँ न चल सकतीं। सती होना यदि सर्वथा निषिद्ध न भी ठहराया गया होता तो भी आज वे अन्यथा व्यवहार कदापि न हो सकते।

हम यद्यपि ऊपर कह आये हैं, कि आजकल का विधर्मी राजा भी हमारे धर्म में हस्तक्षेप नहीं करता, परन्तु वह ऐसे ऐसे धर्म के अंश में बाधक होने में तो बाध्य होता ही है, और विशेष राजनियम द्वारा इसका संशोधन करता ही है चाहे कोई कितना हूँ हाहाकार वा आन्दोलन क्यों न करें, क्योंकि वह अपने विचार से इसमें मौनावलम्बन करना सर्वथा अन्याय समझता है। सती होने के विरुद्ध राज नियम होने में सामान्य प्रजा की ओर से कुछ न्यून विरोध नहीं हुआ था, किन्तु एक छोटा दल उसके पक्ष में भी खड़ा होगया था, अन्ततः राजनियम होने से बड़े की हार, और छोटे की जीत हुई। ब्रह्मसमाज तभी से पुष्ट हुआ और सनातन धर्म राक्षणी सभाओं की "प्रथम ग्रासे मक्षिकापातः" के अनुसार हार हुई। इस भाँति कल की बात है कि—"सहवास सम्मति" नियम निर्माण होने के समय में जो समस्त देशव्यापी घोर आन्दोलन हुआ था, उसमें भी प्राचीन प्रणाली पोषक वा सनातन धर्मावलम्बी आर्यों के विशेषांश समुदाय ने इसका बहुत ही उदण्ड भाव से विरोध किया था, परन्तु न केवल नवीन बहके-विगडैल लोग वा शिथिल विश्वास नूतन मत वाले ही, वरश्च अनेक न्यायप्रिय सुविज्ञ प्राचीन मातानुयायी सज्जनों ने भी उसका विधि होना उचित अनुमान किया, तथा अनेक अंश में सहमत रहते भी अपने सुवहसमाज के भय को त्याग कर उन्हें इस उचित विषय में सहमत होना ही पड़ा।

जैसे कि श्रीमान् महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह वीरेश मिथिलाधिपति को। और जब उनके ऐसे मत के विषय में समाचार पत्रों में बादाविवाद हुश्रा, और अनेक आग्रही समाचार पत्रों ने उनके स्वाभाविक धर्म सम्बन्धी विश्वास