पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२७
वीर पूजा

लिये गये, न कि आर्य राजोद्वारक। तब यदि वे महाराष्ट्रों ही के थोक में चले गये और जब वीर शोलादित्य बङ्गालियों के पूज्य हुये, तो पञ्जाबियों को तो कुछ ढूँढ़ना ही नहीं है। यदि हेर खोज की आवश्यकता है तो हमी लोगों को, जिन्हें सदैव सभी अच्छी वस्तुओं के लाले पड़े रहते हैं।

सम्प्रति हमारी प्रादेशिक राजधानी प्रयाग का अरेज़ी सहयोगी 'इण्डियन प्यूपल' ने इस पर विचार कर यह सम्मति दी है, कि—"हमलोगों को मुगल सम्राट् अकबर का वार्षिकोत्सव करना चाहिये।" जिसका खण्डन करते हुये सहयोगी भारतमित्र ने बहुत ठीक लिखा है, कि मेवाड़पति महाराणाप्रताप सिंह का महत्व शिवाजी से अधिक है, प्रताप का उत्सव मनाकर उत्तर भारत क्या समग्र भारत के हिन्दू जातीय उत्सव को सार्थक कर सकते हैं, और तभी उनकी वीर पूजा असली वीर पूजा हो सकती है।" इस पर बम्बई का सहयोगी श्री वेङ्कटेश्वर समाचार कहता है, कि—"इसमें सन्देह नहीं कि जिस प्रतापसिंह ने गो, ब्राह्मण तथा देश की रक्षा करने और क्षत्रियों की स्वतन्त्रता आक्षुण रखने के लिये घरबार, राजपाट तथा राजमुख त्याग, मुसलमानों की आधीनता स्वीकार करने के बदले उनसे लड़ने में अपना जन्म बिताया और जङ्गल पहाड़ों में रहकर अनेक कष्ट उठाये, यहाँ तक कि कठिन समय आ पड़ने पर घास की रोटी खाकर भी अपना निर्वाह किया और अन्त में हिन्दूराज्य स्थापित करके छोड़ा, उसको भूल कर उस कुटिल हृदय अकबर का उत्सव करने की सलाह देनी, जिसका उद्देश्य हिन्दुओं में मिलकर उन्हें सब प्रकार से चौपट करने का था, आश्चर्यजनक और भूल भरी बात है।" यद्यपि हम अपने इन दोनों सहयोगियों से इस अंश में सहमत है कि-यावदार्य-कुल-कमल-दिवाकर हिन्दपति बादशाह महाराणा उदयपुराधीश वीरवर प्रतापसिंह के वार्षिकोत्सव रूप से वीर पूजा की जाय, और उनकी प्रति उज्ज्वल कीर्ति का आर्य सन्तानों को स्मरण कराने का शुभ अवसर दिया जाय। हम यह भी मानते हैं, कि वह निज कुल में अकेले आपही अतुलनीय और पूजनीय वीर नहीं हुये; वरच अनेक, और न केवल पुरुष, वरश्च पद्मिनी समान कई नारियां, जिस कारण वह वंश हमारा गौरवस्वरूप है; क्योंकि उपरोक्त उसकी दोनों उपाधियां कदाचित् स्वयम् इसका प्रमाण है, तौभी हम अपने प्रादेशिक अंगरेज़ी सहयोगी को अनेक धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते; क्योंकि वह भी बहत दर की कौड़ी लाया है, और ठोक हमारे पूजनीय वीर के प्रतिद्वन्दी ही को