पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२६५

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स्वदेशीय वस्तु स्वीकार और विदेशीय बहिष्कार


जब हम विशेष ध्यान से देखते हैं, तब एक प्रकार सारा भारतवर्ष ही बदला सा दिखाई पड़ता है। यद्यपि इस परिवर्तनशील संसार में अदल बदल का होना तो नित्य स्वाभाविक है, किन्तु भारत की परिवर्तनावस्था कुछ विशेष विचित्र दिखाई पड़ती है, जिसमे कदाचित् यह भी कह देने में अत्युक्ति न होगी कि अब यहाँ के पञ्चतत्व मे भी कुछ २ परिवर्तन प्रारम्भ हो रहा है। क्योंकि जहाँ का आकाश सदैव सामगाम और संगीत की तान से भरा रहता, यश धूप से सुगन्धित और सुहावना दीखता था, वह इञ्जिनों की सीटी और उनकी धकाधक ध्वनि से पूरित यूरोपीय आकाश का भ्रम उत्पन्न कराने लगा है। सामान्य वायु के अभाव में जहाँ पैसे घेले के पखे से वायु का कार्य चलता था, तहाँ अब बिजुली के पंखे वायु प्रदान कर रहे हैं। अलकतरा, फिनाइल, आइडोफार्म आदि भाँति २ की नई दुर्गन्धियों से दुर्गन्धित स्वाभाविक वायु का प्रवाह बहने लगा है। जहाँ देवल बराडे और लकड़ी की अग्नि थी, तहाँ पत्थर के कोयले की मठिया, केरोसिन और बिजली के चूल्हे और चिराग जलते हैं। विलायती मिट्टी, पत्थर, ईट और लोहे घरों के उपादान और पत्रो के रूप मे यहाँ की पृथ्वी को भी तोपते जाते हैं। सामान्य कूपों को पाटते यद्यपि अनेक प्रकार के अशुद्धि को फैलाते, नदियों के स्वाभाविक सुस्वाद जलोको विकृत करते, नल के बल से जल का प्रवाह कुछ और ही गति से बह चला है, तौभी भाँति २ के विलायती पानी मद्य, श्रौषधारिष्ट, बरफ आदि से अब यहाँ के पानी का भी पानी उतर गया है तब सामान्य भारत मात वस्तुओं की परिवर्तनावस्था की कौन कथा कही जाय?

अवश्य ही सोलह आना भारत तो तभी तक था, जब तक विशुद्ध भारत भारतवर्ष कहलाता था। जबसे इसका नाम हिन्दोस्तान पड़ा, चार आना घट कर बारह आना शेष रहा था, किन्तु जबसे कि इण्डिया कहलाया इसने अपना सब कुछ गवाया और कदाचित् अब उसे आना, आध आना कह देने में भी कुछ विशेष संकोच नहीं होता, क्योकि अब भारत में कुछ भी

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