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भारतीय प्रजा में दो दल

दूरदर्शी उच्चाशय धर्माचार्य उत्पन्न हुआ होता; कदाचित् यह प्रतिपक्षी दल कभी का निःशेष हो गया होता अथवा नाम मात्र अवशिष्ट रहता; परन्तु ऐसा न हो एक तृतीय विदेशी भिन्न धर्मी के राज्य होने से बाज यहाँ की प्रजा के दो दल बन गए, जो देश के दुर्भाग्य का एक नवीन कारण हो गया है।

मुसल्मानी राज्य में राजा और प्रजा के दो ही धार्मिक वा जातीय दल थे, जिन दोनों में प्रायः धार्मिक झगड़े होते और कभी कभी मुसलमान राजा के हाथ पड़कर कुछ प्रजा बलात् मुसलमान बना दी जाती थी, तौभी प्रजा का समूह अति वृहत होने से यह उसके सामर्थ से सर्वथा बाहर था कि देश भर के विश्वास के विरुद्ध बल प्रयोग कर सब को अपना धर्म स्वीकार कराता। अवश्य ही द्रव्य के लोभ से वा अनेक बलात् बने मुसलमान अपने नये धार्मिक व्यवहार के करने में बाध्य रहते थे, तथापि उनके उस मार्ग पर चिर दिन पर्यन्त स्थित रहने का मुख्य कारण केवल किसी प्रकार से भी अपने पूर्व धर्म सम्प्रदाय में प्रवेश की निराशा ही थी; जो आज भी लाखों नवीन बने मुसलमानों को उनके पाले धर्म के प्रतिपालन का हेतु है। आज भी यदि कोई मनुष्य एक मुसलमानी स्त्री के प्रेम में पड़कर उसके साथ खाना खा ले, तो फिर वह किसी प्रकार हिन्दू नहीं हो सकता। बस इसी एक अड्चन से नित्य हमारी जाति को संख्या घट रही है। जिस कारण सम्भव है कि किसी दिन इसका मूल नाश हो जाय।

अब किञ्चित सोचिये कि यह कैसे अनर्थ की बात है। वास्तव में यदि एक बार धर्म च्युत होने का प्राचार भ्रष्ट हो जाने से पुनः हमारे धर्म में आने का कोई उपाय ही न होता,तो आज कदाचित् भारत में आर्य जाति वा सनातन धर्म का नाम भी न बचा रहता। किन्तु जर दगुरु भगवान शङ्कराचार्य और महाराज विक्रमादित्य के से सम्राट के बिना वह आज असम्भव ही हो रहा है। इसमें सन्देह नहीं कि पिछले समय गुरु न नक़ अथवा गुरु गोविन्द सिंह, वा राजा राम मोहन राय और स्वामी दयानन्द सरस्वती सरीखे उदार दूरदर्शी धर्माचार्य्यों ने इस पर कुछ ध्यान दिया। परन्तु उन सब का प्रयत्न केवल अपने प्राचीन वा नवीन धर्मानुयायियों की संख्या हास की रक्षा ही करने में समर्थ हुना न विशेष संख्या वृद्धि में सहायक हो सका। क्योंकि यह लोग अपने पुराने धर्मानुयायियों में से केवल कुछ लोगों को अपने उपदेश से अलग कर समय के अनुसार ऐसा बना सके जिन पर विधर्मियों का आक्रमण व्यर्थ हो। उनमें किसी ने केवल विधर्मियों का उनके धर्म विश्वासान्ध

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