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प्रेमघन सर्वस्व

करते, वैसेही कुछ लोग इसी ब्याज से कुछ मर्मस्पर्शी बातें कहकर किसी किसी से दूसरी कसर निकालने ही के लिये व्यर्थ उटपटांग बातें बक चलते हैं कि जो सर्वथा अयोग्य है। कुछ लोग अब एप्रिल फूल के भी फूल बनते हुए वास्तव में अपने को फूल प्रमाणित करते हैं। क्योंकि होली-फूल जब एप्रिल फूल का परदादा हई है तो क्यों वह हिन्दू होकर व्यर्थ क्रिस्तानों के मेल में मिलने का प्रयत्न करते हैं ?

इस वर्ष भी कुछ लोगों ने होली मनाई और किसी किसी से कुछ ठिकाने से बोली ठोली बोलते भी बन आई। जहाँ कुछ कचाई है उसके अर्थ नागामि में सुधई लखाई जाने पर ध्यान रहे,:— व्यर्थ की ढिठाई से हँसाई कराना ठीक नहीं। क्योंकि इस बार भी देखा कि कई लोगों ने कैयों पर अयोग्य आक्रमण किये जो अनुचित थे। समान श्रेणी में भी सम्भ्रान्त के सम्भ्रम का विचार अवश्य है। गुलाल, बाप, भाई, बेटे और साले को भी लगाया जाता ही है, किन्तु सब को एक समानः नहीं। बरच उसमें भी भेद रहता है। बस, इसमें भी उसका ध्यान रखना चाहिये, नहीं तो केवल जलीकटी के आधिक्य से आनन्द के स्थान पर केवल रसाभास और वैमनस्य ही की वद्धि सदा सुलभ है। यद्यपि इस बार कोई व्यक्ति विशेष. इसका लक्ष्य नहीं है, बरञ्च केवल सामान्य भावः का रंग छिड़काव है; तौभी आशा है कि इस पिचकारी के छीठों से लोग चैतन्य हो जायगे।

"लाल गुलाल तो मानौं होली वा फागुन' का प्राण है क्योंकि इसकी शोभा का हेतु है। अवश्य ही गडडामियरी पोशाक पहिनने वाले बहुतेरे अंगरेजीबाज साँवले साहिब लोग इसका लगवाना मानों अपने मूं में कालिख लगवाना से कम नहीं जानते, किन्तु हम उन्हें आर्य सन्तानं ही नहीं मानते इसी से उन्हें केवल संसार का कूड़ा करकट समझ होलिकानल में झोंक देना मात्र ही इति कर्तव्य समझो। नहीं तो जो इस वर्षान्त में हों छलित मन बनानेवाले, स्वाभाविक: मानव मात्र को आनन्द विह्वल वा प्रेमोन्मत्त करने वाले वसन्तोत्सव के शुभ अवसर पर भगवान् पुष्पधन्वा पवायच के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में अपने इष्ट मित्रों के गालों पर लाल गलालन मले अथवा उसे वारण करे तो किसी कवि के कथनानुसार उसे इसी पद्य का सम्बोधन उचित है कि—"नाहक तू जन्म लीन्यो मूरख अवनि महि, बूद्धि क्यों न गयो उल्लू चुल्लू भर पानी में।" सुतराम हम इस होली के हौस में भर अपने सुहृद सहयागियों और प्रिय पाठकगण के गाल लाल