पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/२८८

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पुरानी का तिरस्कार और नई का सत्कार


यद्यपि पुरानी सब वस्तुओं का तिरस्कार और नवीन का सत्कार सहज स्वाभाविक है, किन्तु यह बीसवीं शताब्दी तो मानो मेदिनी को पुरानी मूढ़ता से शून्य कर देने ही पर तत्पर है। क्योंकि संसार में न केवल विदेशी वस्तु और मनुष्यों ही के बहिष्कार का क्रम बढ़ता जाता, वरच बहुतेरी बहुत दिनों से बरती जातो स्वकीय अत्यावश्यक वस्तुत्रों का भी बहिष्कार आरम्भ हो चला है और उसके स्थान पर अनेक परकीय नवीन ओछी और निकम्मी चलन का प्रचार बढ़ता गया है, बरच सच पूछिये तो मानो लोगों के सिरों पर बेतरह इसका शौक भूत सा सवार हो चला है। यहाँ तक कि जो संसार मे बड़े प्यार वा शृंगार का आधार समझा जाता था, अब वह भी निःसार समझा जा कर तिरस्कार की धार मे बहाया जाता है। आज केवल सब के शरीर ही पर से विचार आरम्भ कीजिये, परिच्छदादि को छोडकर यदि बालही पर दृष्टि दीजिये तो देखिये कि कुरुचि की कैसी भरमार है, नवीन सभ्यता किस प्रकार सत्कार के योग्य वस्तुओं का भी तिरस्कार कर स्वयम् तिरस्कार के योग्य हो रही है। हम आर्य है, कौन जाने कि श्राप भी अनार्य न हो, अतः प्रथम इसी जाति की नवीन सभ्यता का नकाब उठाइये और झाकिये कि कैसी सूरत नज़र आती है,—

देखिये कि आर्य लोग अपनी पुरानी बाल छोड़, धोती खोलकर पाजामा पहिनने लगे—कदाचित् दूसरों से मेल मिलाने के अभिप्राय, वा पहिनने खोलने के समय, अथवा ब्यय के संकोच के अभिप्राय से फिर उपवस्त्र वा दुपट्टा छोड़ा—कदाचित् व्यय और थोक के अतिरिक्त गले की फासी समझ कर कि कही कोई यदि पहुँचकर पकड़ ले तो फिर कुछ करते ही न बन पड़े जामे को भी कदाचित् और असुविधाओं को छोड़ इस भय से फेका कि वायु लगते ही कहीं उलट गया, तो बस भरमाला ही खुल जायगा। श्रतः वगल-बन्दी आई, पर वह भीन भाई। अन्त को चपकन पर श्रा अड़े कि वह चिपक कर ठीक शरीर पर बैठने में सहायता देगा। अब पगड़ी भी उतार कर फेक दी। क्या इस भय से कि गुरुचों का आधिक्य