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पुरानी का तिरस्कार और नई का सत्कार

की भी गंवाये अन्धे बन बेतकल्लुफ घोड़े और बछेड़े बने उसी जीन समान डबलजीन और गर्म्मी में भी फलालीन की पोशाक में कसे कसाये चारों ओर कूदते फांदते नज़र आते हैं। इतना नहीं सोचते कि आज कल इस पहनावे पाल में पड़े आज से पक कर घुल जायंगे! वे खायंगे कच्चा मांस और सड़ी मछली अथवा दाल भात, और पियेंगे सोडा वाटर और प्राण्डी, तो जीथेंगे कैसे? यह गर्म देश है, इसी से इसके योग्य वह कदापि नहीं है।

यूरप वा श्वेतदीप तो मानो पश्चिमीय सभ्यता का मायका अथवा पीहर ही ठहरा, कि जिसको वर कर भारत भर आज श्वेताङ्ग होने की अभिलाषा से साँवले से काला बना जाता है। यदि इङ्गलैण्ड उसका बाप, तो फ्रान्स उसकी माँ है जहां यदि प्रातःकाल वह और, तो सन्ध्या होते ही होते और ही ढब की हो जाती है। वास्तव में पश्चिमीय सभ्यता अभी बाला और तृतीया नायिका वा वेश्या-वृत्तिधारणी है, क्योंकि वह संसार के सामान्य जन समुदाय से अपना अर्थ-संग्रह कर श्रीमती बनती जाती है। वह औरों की चाल चालाकी से लेकर लेने से भी मुकर कर चोंचले बघारती किसी प्रकार नहीं हारती और न यह विचारती कि यह जिसकी वस्तु है उसी के आगे अपनी बनाने में कुछ लज्जा की आवश्यकता है, या नहीं? इसके अतिरिक्त वह अभी परिपुष्ट नहीं हुई है, इसी से उसमें अधिक छिछोरापन और कचाई है कि जिससे उसे अपना पेट भरने को चारों ओर फिरना पड़ता और उलट पुलट कर नया स्वांग भरना पड़ता है। अभी कुछी दिनों में वह ग्राम्य वा जङ्गली से नागरी बनने की प्रयासी बनी है, अतः उसमें बहत कछ चटक मटक की लालमा स्वाभाविक है, और उसी चटक मटक पर हमारा हिन्दोस्तान सौ जान से कुर्बान है। वह हमारी बारहबन्दी को डबल नोट बनाती, हमारे लबादे को ओवर कोट कर डालती, फतूही को वेस्ट-कोट पुकारती और नई काट-छाँट से भोले भारतीयों के कान काटती है। हमारी ही दुपलड़ी टोपी कतर व्योंत कर वह गबरू सोलजरों के गोर मखडी पर लगा अजीब शोभा दिखलाती, परन्तु यह बात हमारी समझ में नहीं आती! हिन्दोस्तानी कुरते और अंगरखे की धास्तीने जब ढीली थी तो उन्होंने अपनी चुस्त की, जब हमने वैसी की, तब उन्होंने अपनी इतनी ढीली कर दी कि वह पाजामे की मुहड़ी का मुकाबिला कर चली बस हम फिर उसी पर दल चले, परन्तु संभल कर ठीक अपनी जगह पर न पा सके।