पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३०२

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कांग्रेस की दशा


क्या उस छोटे से पैम्फलेट "एक वृद्ध मनुष्य की मनोकामनाएँ" की सुध कभी भूलने वाली है। उन दीन वचनों का स्मरण करने से कलेजा काँप उठता है और उन प्रेममयी पंक्तिसुधा से पूरित हृदय स्थल में देशानुराग की लहरें उठने लगती हैं। कांग्रेस के बाल्यावस्था की सुध फिर हो जाती है, फिर भी वही उत्साह, प्रेम, देशोन्नति की चाह से चमकते मुँह वाली मंडली कांग्रेस—पिता को घेरे खड़ी देख पड़ती है। अच्छे कार्य के संकल्प मात्र ही से मन प्रसन्न हो जाता है, उत्साह के मारे हर एक इन्द्रियाँ बल से भर उठती हैं, कुछ ऐसी तीव्रता शरीर में आ जाती है कि बिचारते ही फलसिद्धि सामने रक्खी हुई सी जान पड़ती है, देश की दुर्दसा को देख इसके उद्धार करने की प्रबल इच्छा से प्रोत्तेजित मंडली, उस दुर्गम मार्ग की, जिसे उसने बहुत कुछ तै किया है और करती जाती है, दुर्दशाओं का यथार्थ, अनुभव कैसे कर सकती थी। उसे भला यह कब मालूम था कि जिनकी दशा के सुधार के अर्थ वह बद्ध परिकर हुई है उन्हीं में से विद्रोही, स्वार्थी कह नाना प्रकार की यातनावों में उसे फँसाने को खड़े हो जायगे? वह यह कब समझ सकती थी कि उपकार करते अपकार मिलेगा? भला यह कैसे समझ सकती थी कि स्वतन्त्रता के पाले अधिकारी अपनी माता के वात्सल्य को भूल, जो अपने लिए अमृत है दूसरे के लिए विष बना हमारे सदा के साथी, देशी मुसल्मानों को और ही कुछ समझा इसके जी को वहाँ का विद्रोह के बीज को बो, अपने महा समुद्रों को पार कर बरफी घोसलों में बैठ हम लोगों की नासमझी पर ठिठोली करते होंगे? मानों वह इनके अधिकारों को छीन स्वयम राज्य करने को अचानक प्रस्तुत हो गई थी, या व्यवस्थापक सभाओं को तोड़ स्वयम् व्यवस्था करने को उठ खड़ी हुई थी, या प्रधान सैनिक के आसन को छीन स्वयम् विजय सूची चिन्हों को लगा, हाथ में किर्च ले विद्रोह के बिगुल बजा इन्हें इनके स्टीमरों में बिठा जहाँ से आये हैं वहाँ लौटाने को तत्पर हो गई थी, या बाइसराय के अधिकार का मुकुट छीन, तैय्यब जी, नौरोज़ जी, बैनर्जी, माधवराय, तैलंग, यूल, ह्यूम, बेडर्बन या अयोध्यानाथ के शिरों पर

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