पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

भारतवर्ष के लुटेरे और उनकी दीन दशा

गायन्ति केचित्, प्रहसन्ति केचिन्, नृत्यन्ति केचित्, प्रणमन्ति केचित्।
पठन्ति केचित्, प्रचरन्ति केचित्, प्लवन्ति केचित्, प्रलपंन्ति केचित्।
परस्पर केचित्, उपाश्रयन्ति, परस्पर केचित्, अतिब्रुवन्ति। दुसाद्द्रुम केचिद्भिद्रवन्ति, क्षितौ नगाग्रान् निपतन्ति केचित्।
महीतलात् केचिदुदीर्णवेगा, महा द्रुमाग्रारण्यभिसपत्न्ति।
गायन्तमन्यः प्रहसन्नुपैति, रुदन्तमन्यः प्रदन्नुपैति।
नुदन्तमन्य, प्रणदन्नुपैति, समाकुलतत्कपिसैन्य मासीत्॥
नचात्र कश्चिन्नभूव मत्तो, नचाल कश्चिन्नभूव हप्तः।
नखैरनुदन्तो दशनैर्दशन्तस्, तलैश्च पादैश्च समापयन्तः।
मदात् कपिंते कपय समन्तान्, महावनम् निविषय च चक्रुः॥

बाल्मीकि।

बिजयादशमी बीती, दिवानी दिवाली भी आई और गई, फिर कोई न कोई और उत्सव के दिन आएहींगे, धन्य भारतवासी हैं जो सांसारिक कार्यों को इस भाँति उत्तमत्ता से करते हैं कि मन का बहलाव हो, देवताओं की पूजा हो, आवश्यक कृत्य भी साथही साथ इन्ही की लपेट मे होते जायें। इन्हें त्योहारों और उत्सवों से छुट्टी ही नहीं मिलती, यह सन्तुष्टता का फल है। सम्पन्न होने ही से समय का विभाग इस उत्तम रीति से हुआ था सब बाते भरी थी, किसी दूसरे की चाह न थी, नियन्ता सर्वज्ञ और कालवित थे, देश सुख सामग्री से सम्पन्न था, किसी दूसरे की समृद्धि के पाने की लालसा न थी, इसी से अपने ही मे सन्तुष्ट थे, परन्तु विदेशी लोलुपों की कुत्सित नजरीली आँखों से यह देखा न गया, दूर दूर से मरभूखे फाट पड़े और इस सदा बसत व्यापी, सुघर हरी भरी बाटिका को उजाड़ डाला, जिस ओर दृष्टि फेरिये, जहाँ जाइये, वहाँ ये बाते नही हैं जिन्हे अपने थोड़े से बचे बुड्ढों से लड़कपन से सुनते और इतिहासों में पढ़ते आये हैं अद्भुत व्यथा जी को पकड़ लेती है और ऊपर लिखे श्लोको की दशा का यथार्थ अनुभव हो जाता है। मुसल्मानी लुटेरों की निर्दयता का तो कहना ही क्या, जिनकी धर्म पुस्तकों या उनके रचनेहारों के विचित्र

२७४