पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३१६

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नागरी के पत्र और उनकी विवाद प्रणाली


यद्यपि समाचार पत्रों का प्रायः प्रचलित विषयों पर सम्मति प्रदान, एवम् किसी विशेष विषय के उचितानुचित, कर्तव्याकर्तव्य अथवा न्याय अन्याय के निर्णयार्थ परस्पर वादानुबाद करना सामान्य धर्म्म है; तथापि देश, जाति, अवस्था, समय और योग्यता के अनुसार यथा रीति और नीति सभ्य समाज से उसकी सीमा भी प्रतिबद्ध है। पृथक पृथक जाति समाज सम्प्रदाय वा समूह के अनुसार भिन्न भिन्न विषयों पर स्वाभाविक अनुराग और आग्रह संकोच और उपेक्षा तथा उदासीनता और पक्षपात भी होता है; अतः समाचार पत्रों की भी एक जाति वा सम्प्रदाय मानी जाती है। अर्थात् वह जिस जाति वा समूह का पक्षपाती वा समर्थक है, उस जाति वा समूह के मुख पत्र होने से उसी जाति वा समूह का स्वरूप माना जाता, और उसका कथन उस जाति वा समूह का कथन अनुमान किया जाता है। इसलिये उसकी सम्मति वा बादानुवाद भी प्रायः सर्वसामान्य ही विषय पर होना उचित और विधि है क्योंकि इसके अतिरिक्त किसी विशेष विषय का जिससे जन साधारण को कर भी सम्बन्ध नहीं है, किसी पत्र में स्थान पाना पत्र की मर्यादा का नाशक है योही आ सम्पादक प्रकाशक अथवा किसी विशेष व्यक्ति के स्वार्थ साधन सम्बन्धी सामग्री का समावेश तो मानों महा निन्दनीय है। क्योंकि सामान्य रूप से प्रायः समाचार पत्र वा पत्रिकायें जन साधारण ही की सम्मति मानी जाती है। और यथार्थतः उसका सर्वसत्व एक प्रकार तत्सम्बन्धी समाज या समूह को मानना भी उचित और न्याय संगत है। पत्र का स्वामी और सम्पादक मानो एक एक प्रकार के कार्यकर्ता मात्र हैं, न कि सर्वथा स्वतन्त्र सर्व स्वत्वाधिकारी किसी पत्र के स्वामी वा सम्पादक का पत्र उसकी वैसी सम्पत्ति नही है, जैसे कि उसका ग्रह, वाटिका वा वाहन। वह उसके हानि लाभ का भागी अवश्य है, परन्तु उसका मत तो सर्वथा उसके समाज और समूह का अनुमोदित ही होना उचित है। चाहे उसका सम्पादक किसी विशेष कारण से सर्वथा उसके प्रतिकूल ही सिद्धान्त क्यों न रखता हो, परन्तु

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