पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९०
प्रेमघन सर्वस्व

की निन्दा सुनते सुनते जब लोगों की उससे अश्रद्धा हो जायगी तब फिर वही वाक्य चरितार्थ होगा कि "छिन्ने मूले नैव पत्रां न शाखा।"

इसी से हम अति विनम्र भाव से अपने आदरणीय सहयोगियों से पूछते हैं, कि जिस प्रकार आज कल आप लोग मण्डल वा उसके नवीन कार्यों पर अपनी अति तीन अनुमति प्रकाश कर रहे हैं; छोटे से छोटे दोषों पर भी बड़े से बड़ा विरोध कर रहे हैं और बड़े बड़े आवश्यक विषयों पर भी उदासीनता दिखला रहे हैं, उससे मण्डल को कितने लाभ वा हानि की आशा है? इसे स्वयम् विचार कर अब उस बिचारे पर दया दृष्टि फेरिये। इस नये पनपते पौधे को प्रेम पानीय प्रदान पूर्वक परिपुष्टावस्था को पहुँचाइये। इसके वर्तमान नवीन वा कुछ अकुशल कार्यकर्ताओं की सामान्य असावधानी और भूलों को क्षमा कीजिये। महामण्डल को निज की सम्पत्ति समझ कर शीघ्र सुसम्पन्न करने पर लक्ष्य रख यथा शक्ति उसकी सहायता कीजिये, न तु विरोध और उपहास। क्योंकि आज कल जितनी निर्दयता से आप लोग उस पर आक्रमण कर रहे हैं, उससे अधिक कदाचित् आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी वा अनेक अन्य नवीन पथानुगामी, वा विधर्मी लोग भी नहीं कर सकते। आप लोगों के उपहास और विरोध को देख कर क्या आप के पत्र पाठकों को महामण्डल से कुछ भी श्रद्धा वा सहानुभूति रह सकती है? निश्चय आप उस कल्याणधार एकमात्र छप्पर को जिसके नीचे असंख्य प्राय॑सन्तानों को सुख-छाया की आशा है, सहायता कर उठाने के स्थान पर उठानेवालों को वारण कर रहे हैं। फिर बतलाइये कि अब वह बिचारा किससे अपनी सहायता और कृतकार्यता की आशा रख सकता है? आप जब उसका विरोध करते हैं, तो भला और विरोधियों के दल से लड़ना तो दूर रहे, आप ही को उत्तर देने के लिये वह कहाँ से सहायता पत्र पाये? अब कहिये कि भारत के भाग्य को छोड़ फिर किसका दोष दिया जाय।

क्योंकि जब तक मण्डल अचेत पड़ा सोता था, किसी देश हितैषी वा धर्म प्रेमी के कान पर जू तक नहीं रेंगे। वे सब भी वैसे ही अचेत पड़े सोते रहे। परन्तु अब जो वह कुछ-कुछ चैतन्य और सचेष्ट होता हुआ दिखाई पड़ चला, तो भारत दुर्भाग्य के सदा के सहायक बैर और फूट का प्रभाव भी फैल चला। चारों ओर से लोग उसकी टंगड़ियों तोड़ने पर उद्यत हो उठें।