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नागरी समाचार पत्र और उनके सम्पादकों का समाज

शुद्ध लिखना नहीं आता, आप ग्रामीण है, आप उजड्ड है, निर्लज्ज है और क्या नहीं हैं। अभी कुछ दिन कहीं जाकर आमुखता सुनाइये, तब फिर आकर बातें बनाइये। इत्यादि" में कहीं बढ़ बढ़ कर उक्तियों का तो मानों उन्होंने पाठही कण्ठ कर लिया है। इसके अतिरिक्त भाँति भाँति की अप्रतिष्ठा सूचक वाक्यावालियों जो गालियों से न्यून नहीं, आलोचना और आलोचना की समीक्षा प्रश्नोत्तर पञ्च, परिहासादि के रूप में कई महीने निरन्तर सुनाई पड़ती रही। कोई यदि किसी को मूर्ख और गँवार बतलाता, तो यह उसे मसखरा और भाँड बनाता। फिर कहिये इससे अधिक आश्चर्य और आक्षेप का विषय और क्या है? यदि ये बातें अनभिज्ञ और नवसिखुये लेखकों की ओर से होती, कुछ विशेष विचित्र न अँचती, किन्तु उक्त दोनों महाशय सम्प्रति इस भाषा के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित सुलेखक स्वीकार किये जाते, दोनों विख्यात और सन्मानित पत्रों के सम्पादक हैं।

अस्तु, यदि ये दोनों महाशय केवल अपने ही पत्रों में इस विवाद को स्थान देते, तो भी विशेष हानि न थी, परन्तु दुःख से कहना पड़ता है कि इनके प्रभाव में समस्त पत्र इसी दोष में दूषित हो गये। दलपतियों को छोड़ कर इनके सहायक और विपक्षियों ने अति अच्छा अवसर पाकर अपने अपने मन की कसक निकालनी प्रारम्भ की और सबों ने मिलकर एक अनोखी उत्पात प्रारम्भ कर दिया, कि जिसका मुख्य सिद्धान्त पराई निन्दा और इसी के ब्याज से दूसरे को चार गाली दे देना मात्र था। फिर आनन्द तो यह कि सब पत्र सम्पादक लोग अपनी अपनी टिप्पनियों में इस पर शोक सूचित करते, इस झगड़े को मिटाने के अर्थ अति उत्कण्ठित दिखलाते और साथ ही एक अच्छा गाली-सहस्र नाम भी प्रकाशित कर देते। वह अपने निज पत्र को भी इस दोष से रहित न करते, जो सबसे आश्चर्य और आक्षेप का विषय था। हम स्वीकार करेंगे कि समाचार पत्र एक प्रकार सर्वसामान्य की सम्मति हैं, उसमें सबी का अधिकार है कि जनसाधारण के हित सम्बन्धी चाहे किसी विषय पर अपनी स्वतंत्र सम्मति प्रकाशित करें, परन्तु क्या उसके विरुद्ध गाली? अथवा किसी जन विशेष को मनस्ताप देने ही के अर्थ व्यर्थ वागाडम्बर?

कहा जाता है, कि "विवाद के इस विरूरता का कारण परस्पर प्राचीन मानोमालिन्य है, क्योंकि बिना आन्तरिक दोष के ऐसा उत्कट कलह असम्भव है।" कदाचित् यह किसी सीमा तक सत्य हो, क्योंकि इसके पूर्व