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प्रेमघन सर्वस्व

फल और न प्रतिष्ठा ही पाकर, हताश अनेक बाधाओं को झेलता, अपनी जान पर खेलता, देश में यह नवीन दल, जो दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति करता ही चला जाता, जिसने तीन ही वर्ष में देश की दशा ही पलट दी, उत्पन्न हुआ, अर्थात् जिस प्रकार आरम्भ में भारतीय प्रजा के दो दल अज्ञानी और अकर्मण्यों तथा विज्ञ एवम् कार्यकर लोगों के थे, योंही जैसे उन विज्ञ और कार्यकर दल के भी दो भाग हो गये थे, अर्थात् एक काँग्रेस में बैठ कर देश के स्वत्व प्रातत्यर्थ पुकार मचाने वालों और दूसरा खुशामदी टट्टओं का जो कि सच्चे स्वदेश हितैषी काँग्रेस करने वालों को बाग़ी और बावले कहने वाले थे, वैसे ही बीस वर्ष की निराशा और असन्तोष ने उन काँग्रेस करने वालों के भी अब दो दल नर्म और गर्म बना डाले। एवम् जैसे कुछ दिनों के पीछे काँग्रेस का विरोध दल केवल नाममात्र को रह गया और सब शिक्षित और निःस्वार्थ समुदाय प्रायः काँग्रेस का पक्षपाती हो गया तद्रूप अधिकांश सुशिक्षित जन और प्रायः समग्र नवशिक्षित समुदाय गवर्नमेण्ट की उपेक्षा से अब क्रमशः नवीन गर्म ही दल का पक्षपाती होता चला जा रहा है। इसी प्रकार जैसे काँग्रेस की गति रोकने में पिछला खुशामदी दल अकृतकार्य रहा, वैसे ही नर्म दल की शक्ति से भी अब गर्म दल का दबना असम्भव है। जिसके अर्थ कि उसका बहत कुछ प्रयल प्रायः निष्फल भी हो चुका है। तथापि वह अपनी सी करता ही चला जा रहा है। किन्तु इसमें कदापि उसको कृतकार्यता न होगी, क्योंकि नया कुछ सच्चा फलप्रद कार्य करता और पुराना केवल प्रार्थना कि जिसका न तो अब तक कुछ फल मिला और न आगे के लिये आशा है। निदान जैसे कि आदि के असन्तोष ने लार्ड लिटन की गवर्नमेण्ट से आरम्भ हो लार्ड डफरिन के राज्य में पूर्णता को पहुँच कर काँग्रेस की सृष्टि की थी, वैसे ही द्वितीय ने लार्ड कर्जन के समय से उभड़, लार्ड मिण्टो की गवर्नमेण्ट में पूर्ण होकर इस नवीन 'एक्सट्रीमिस्ट' दल की सृष्टि की है। अथवा यों कहिये कि यदि प्रथम दिल्ली दरबार से वह बच्ची हुई थी, तो यह द्वितीय का बच्चा निकल पड़ा है, जिसके जन्म के साथ यह आशङ्का बलवती हो उठी थी कि सामयिक प्रजा असन्तोष कहीं काँग्रेस में विशेष उग्र रूपन धारण कर ले; जिसका आभास हमारे "शभसम्मिलन" नामक उस कविता में आया है, जिसे हमने काशी कांग्रेस के प्रतिनिधियों की सेवा में समर्पित की थी। यथा—