पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३५

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नागरी भाषा (या इस देश की बोल चाल की भाषा)


[भाषा की समस्या प्रेमघनजी के समय में भी जटिल रूप धारण किए थी हिन्दी के अस्तित्व पर आक्षेप करने वाले उपस्थित थे, वास्तव में हिन्दुस्तानी की ही परिभाषा हिन्दी को दी जाती थी। प्रेमघन जी ने हिन्दी के क्रमिक विकास और उसके प्रादुर्भाव का रेखाचित्र इस लेख में दिया है जब भाषा विज्ञान का अध्ययन हिन्दी-साहित्य में प्रारम्भ भी नहाँ हुआ था।—सम्पादक]

यह वह विषय है कि जिसमें बड़े बड़े बुद्धिमानों ने अपनी शक्तयानुसार दिल दौड़ा और बुद्धि को बहुत श्रम दे, कलम को घिस डाला और बड़े बड़े लम्बे चौड़े तख्तों की गड्डियाँ की गड्डियाँ रंग डाली, आज हम भी उसी विषय की विवेचना पर तत्पर हो कलम उठाते हैं।

देखना चाहिए कि वहुतेरों का क्या मत है। कोई कहता कि नागरी भाषा अथवा हमारी आर्य भाषा कदापि यहाँ की भाषा नहीं और न इस देश के किसी भाग या प्रान्त में कभी बोली जाती थी, और न अब भी ठीक कहीं बोली जाती है। यह केवल यारों की ईजादेजदीद और नवीन कल्पना है। कितनों की यह राय है कि ज़बान उर्दू को हिन्दी हरफ़ों में लिखने से नागरी नाम होता है। कोई कहता है कि यह खिचड़ी पचमेल है और बेबुनियाद और निर्मल वस्तु का नमूना है। अनेक भाषा में अन्य अरबी, फारसी, तुर्की, ईरानी, तूरानी आदि के शब्दों से इसकी शोभा बतलाते, बल्कि इसके ब्याकरण में अरबी की गर्दान और तमाम जहान के ज़बान की पूरी योग्यता होने पर वर्णमाला पढ़ाने के योग्य ठहराते हैं। और कोई ऐसे हैं कि वे दूसरी भाषा के लफज़ों से कसम खा चाहेबाठ शब्दों से भी कठिन से कटिन शब्द खुद कोष या लागत देखकर निकालकर लिखेंगे, चाहे पढ़नेवाला उसे न समझे, पर प्रचलित और आम फ़हम दूसरी भाषा के शब्द न रखकर अवश्य उसका अनुवाद करके लिखने को ही भाषा कहते हैं। कोड़ियों कृपानिधान ऋद्धित हो यह कहते हैं कि भाषा बनाई नहीं जाती, किन्तु जो हमारे लड़के-चाले, औरतों के बोल चाल में मिले, और जिसे हम भी उनके साथ बोलते चालते