पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२०
प्रेमघन सर्वस्व

न्यूनातिन्यून महासभा के अधिवेशन के पूर्व उभय दल के नेताओं की कोई सभा तो अवश्य ही होनी चाहिये थी, जब कि यह निश्चय था कि महासभा में अबकी बार कुछ बखेड़ा अवश्य होगा। लोग नागपुर की दशा देख चुके थे। उग्रों का उत्साह और उत्कट समारम्भ सूरत में भी देख रहे थे। कलकत्ते का बिपुल विंभ्राट और उसकी शान्ति के उपाय तथा महामान्य दादामाई के क्रियाक्रम को भी जानते थे, तब क्या समझ कर प्रकाश्य रीत्या राष्ट्रीय महासभा करने पर उद्यत होकर उन्होंने उसका भरमाला खोल देश को उपहासास्पद बनाया? फिर इस अनर्थ और प्रमाद का तो कहाँ ठिकाना है कि प्रथम दिन सभापति के निर्वाचन की दुर्दशा देखकर भी लोगों की आँखें न खुलीं। शान्त दल केवल विपक्षियों की उदारता के भरोसे पर दसरे दिन फिर मण्डप में जा बैठा और उपद्रव के शमनोपाय के अर्थ कुछ भी उचित यत्न न कर सका—यद्यपि कि उग्रों ने अपनी सभा में यह मन्तव्य भी स्थिर कर लिया था कि यदि उक्त चारों प्रस्ताव न स्वीकृत होंगे, तो हम लोग सभापति निर्वाचन ही से विरोध आरम्भ करेंगे। रही उग्रों की उग्रता, उसकी निन्दा की तो आवश्यकता ही नहीं कि जो देश के दुर्भाग्य का कारण है। उन्होंने अपना अभीष्ट पूर्वोक्त अन्य उपाय से न सिद्ध कर, अनायास केवल शान्तों के अहंकार और उनके सर्वथा स्वतन्त्र अधिकार के संहार के साथ ही राष्ट्रीय सभा का विध्वंश कर अपनी अत्यन्त गर्हित नृशंसता का परिचय दिया। उन्होंने न केवल स्वदेश वरश्च समस्त संसार को दिखा दिया कि वे परम मान्य देश सेवकों की भी कैसी कुछ उलटी पूजा करनी जानते हैं। देश के गौरव के आधार स्वरूप अपने महामहिम नेताओं की भी अति निन्दनीय रीति से प्रतिष्ठा भंग करके वे अपने को कृतकार्य मानते हैं। ग्लानियुक्त होने वा पश्चात्ताप करने के स्थान पर वे इसे अपना विजय मानते हैं। वास्तव में उसने अपने दो ही वर्ष के समूह संगठन से एक उस जातीय महासभा को भङ्ग कर देने की वीरता दिखाई है कि जिसके कारण उसकी सृष्टि हुई है। हम यह मानते हैं कि उसके विपक्षी दल के कुछ लोगों ने उसकी सम्मति का किञ्चित तिरस्कार अवश्य किया, तो भी क्या किसी एक या कई व्यक्तियों के कृत्य से रुष्ट हो समस्त समाज वरञ्च सारे देश को हानि पहुँचाना कभी युक्ति युक्त है? क्या एक वा दो वर्ष पर्यन्त यदि मिस्टर तिलक या कोई और गर्म दल का सभापति न चुना जाता अथवा कांग्रेस में नर्म्म ही दल का कुछ अधिक अधिकार रह जाता तो गर्म्म दल का मान भङ्ग वा सर्वनाश हो जाता