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कजली कुतूहल

की आवश्यकता और न विशेष सामग्री ही सापेक्ष्य होती। रथ और गाड़ियों पर चढ़े समीर सेवन का सुखानुभब भी जब झूली ही पर हो जाता और संसार का नवीन रूप खिड़कियों में भी बैठे वैसाही दिखाता, जैसा कि योजनों जाने से। वास्तव में इन दिनों अति उदार हो प्रकृति घर बैठेही उत्तव अनुभव कराती है। अस्तु, जैसे वसन्तोत्सव के त्योहार का नाम होली वा होलिका दहन के कारण होली हुआ, ऐसेही सुप्रसिद्ध त्योहार कजली तीज के रहने से इस बरसाती उत्सव का नाम भी कजली कहलाया। एवम् जैसे होली के अवसर पर गायी जाने योग्य गीतों का नाम होली पड़ा, कजली में गाने योग्य गीत कजली के नाम से विख्यात हुई। जैसे वसन्त ऋतु में श्रीराग, या वसन्त अथवा बहार के होते हुए भी एक विशेष गीत होली की आवश्यकता हुई और अति सर्वप्रिय हो उसने उपरोक्त अन्य प्रचरित प्राचीन रागों का राम न्यून किया और अब जैसे चैती अपना प्रेम पसार रही है, ठीक वैसेही मेघ श्रादि मलार, अथवा सावन वा सावनी गीतों के होते हुए जैसे झूले की एक विशेष गीत ठहराई गई, कजली का होना भी परमावश्यक प्रतीत हुआ होगा।

वास्तव में पावस की उमडी कलित कजली अर्थात आकाश पर छाई काली मेघ माला को (जिसे उत्तर भारत में कजली कहते हैं, यथा,—देखो पच्छिम कैसी कजरी उठी है) जिसकी उत्प्रेक्षा रसिक चूड़ामणि हमारे देश के कवि कुल कलाधर कालिदास यों करते हैं, कि—

"नितान्तनी लोत्पलपत्रकान्तिभिः कृचित्पभिन्नञ्जनराशिसविभै
कचित्हगर्भाप्रमदालन मैंः समाचितव्योमधनैस्सएन्ततः॥"

अर्थात—कितने ही गहिरे नीले कमल के रङ्ग के, कितने काजल की राशि से और कितने ही गर्भवती कामिनियों के कुच के सहश काले बादलों ने चारों ओर से प्रकाश को घेर लिया। देख क्या राव, क्यारेक, क्या रानी और क्या दीन सियारनी सब के मन में समान ही उल्लास उत्पन्न होता। फिर उस कजली से विशेष काली की गई वास्तव में सावन मादवँ की अँधेरी रजनी जो कि कामी जनों को स्वभावतः परम प्रिय होती, यथा,—

"धनागमो कामिजनप्रियः प्रिये।" अथवा"—
"घूमि घूमि घोर घन घटा लेती भूमि-चूमि,
झूमि झूमि लता उठे झंझा पवन झारी मैं।
मोरन की सोर झिँगुरन को फँकोर जोर,