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प्रेमघन सर्वस्व

ठौर ठौर दादुरं रटत निसि कारी मैं
'सिव कवि' ताही समय असित सिँगार साजि
चलो प्रान प्यारी मन दीने बनवारी में
चौरत' चुरेल को अनीन को, बनीन बीच
जाति है फनीन की, मनौन की उँध्यारौ में।

उसका यदि कोई ऐसा अनोखा उत्सव न होता तो मानों आर्यों की रसज्ञता, अथवा बिनोद विवेक बुद्धि में न केवल बट्टा लग जाता वरञ्च संच पूछिये तो उनमें विचार शून्यता अथवा अकृतज्ञता का भी दोष दिखलाई देता। जिसकी शोभा लख स्वयम् प्रकृति विमोहित होती और दिन में भी उसी शोभा का संचार करती, वा यों कहिये कि दिन भी रजनी के रूप में निमग्न प्रेम विवश लालजी के कथनानुसार रात और दिन में कुछ भेद नहीं प्रतीत होता है।। यथा,—

"पावस घन अँधियार में रह्यो भेद नहिं आन।
राति दिवस जाने परैं, लखि चकई चकवान॥"

न केवल स्याम बनाच्छादित हो आकाश हो अन्धकार का अधिकार विस्तार करता, वरञ्च श्यामायमान वेलि-बिटप वृन्द विभूषित वनराजि भी उसको सहायता देती[१] और श्याम शस्य पूरित मेदिनी भी उसी का अनुकरण कर विचित्र विधि मिलाती; स्वयम् ईश्वर से भी जब अपने ही रङ्ग को अंगीकार करा उसे अपनी शोभा दिखाती, बुलाती वा अपने पर प्रगटाती, तो उसके सुत काले काम का राज्याभिषेक करा देना तो उसे क्या बड़ी बात है। जिस हेतु कजली की मनमोहनी शोभा सिमटकर न केवल कामिनियों की कटिल काली कुन्तलावलि पर आ बसती, वरञ्च उनके नेत्रों में तो मानो अपना एकान्त मन्दिर ही बना बैठती। किन्तु कुरंग लोचनियों को इतने पर भी सन्तोष नहीं वे उसे देख स्वयम् इतनी रीझती, कि कज्जल की रेख दे दे मानो उसे अपने प्रेम-पास में बाँध कर बन्दी बनाती और उसकी शोभा वृद्धि कर आकाश पर उमड़ी कजली (मेघ माला) को भी ईर्षा उत्पन्न। करतीं; क्योंकि मन में उनके कृष्ण काम ने निज राजधानी बना, अब अपने ही वर्ण से उन्हें विशेष रुचि, अपने ही कुतूहल से काम एवम्


  1. >मेघैर्मेदुरमस्वरम् वनभुवः श्यामास्तमाल द्रुमैः।