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कजला की कुछ व्याखा

कजली के मिस पूर्व प्रेमान्धकार का अधिकार करा दया है। जैसा किसी उर्दू कवि ने कहा है, कि—

"की फरिश्तों की राह अब से बन्द। जो गुनः कीजिये सवाब है आज।"

निदान उस कजली की मनमोहनी शोभा संयुक्त कजली के सुहावने अवसर पर क्या रानी और सम्भ्रात कुल कामिनियाँ ठाकुर कवि के कथनानुसार

"सजि सूहे दुकूलनि बिज्जु छटा सो अटांनि चढ़ी घटा जोवती हैं।
रंग राती सुनै धुनि मोरन की मदमाती सँजोग हैं सँजोवती हैं।"

अथवा सामान्य कृषिकारिणी रमणी, जैसा नबाब अब्दुर्रहीम खानि खाना (रहीम कहते हैं कि—

"नीकि जाति कुरमिनि की खुरपी हाथ।
आपन खेत निरावहिं पिय के साथ॥"

दोनों की आँखें आकाश की ओर देख समान रूप से आनन्द अनुभव कर नहीं अपाती और न वे निज हर्ष को बिना प्रकाश किये रह सकती है, यथा—

साबन की अंधियारी निसा झुकि बादर मन्द ही वर सावत।
राधिका मापनी ऊँची अटा पे चढ़ी रसरंग मलारहि गावत।
ता समय प्रीतम के हग दूर तै आतुर रूप की भीख यो पावत।
पौन मया करि घूँघट टारे दया ऋरि दामिनी दीप दिखावत।

यदि रानियाँ बीन सितार वा तसूरे पर प्रवाल शीखाशकल सी उँगलियों को फेरती उसकी स्तुति करती यों ग्राम वधूटियाँ धान के खेतों में विचरती नवजात तृणों को निर्मूल करतीं, उसी रस में निमान अपने सुरीले स्वर उसके गुणालाप से उन्हें ईर्षा उत्पन्न कराती हैं। विशेषतः ये क्यों न ऐसा करतीं, कि एक मात्र जगतजीवनाधार मेघमाला संसार को स्तुत्य होकर भी उनकी विशेषतर है। जैसे—

"छाया दानत्क्षणपरिचितः पुष्पलावी मुखानम्।"

अस्तु, उस कजली के स्वाभाविक उत्सवमय समय के आनन्दमय क्रीड़ा कुतूहलयुक्त बरसाती उत्सव को कजली-उत्सव अथवा त्यौहार कहते, एवम् उससे तथा उससे सम्बन्ध रखनेवाले अनेक वर्णनीय विषयों के वर्णन से युक्त स्थानिक तथा सामयिक बातों का भी बखान जिसमें होता;

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