पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३८

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प्रेम घन सर्वस्य

बड़े भारी अंगरेज विद्वान् लाखों क्या करोड़ों रुपये लगा २ दूर्वीन और कलों के ठड्ढे खड़ा कर उसे जाँचते और मिलाते, और उस समय के उनके दिखाये दर्रों के देखने को इतने आलाइवाल और मकान क्या किन्तु हाते के हाते भरी हुई पुस्तकों और यन्त्रों को उलट पलट करते और सोचते सोचते दाँत तले उँगली दबाते पर आज को उसे ठीक और यथार्थ पाते हैं। न केवल यही विद्या किन्तु जितने सूत्र हमारे महामान्य पूज्यपादारबिन्द ऋषियों के हैं, अथवा और भी जो आर्य ग्रन्थ हैं, उनके देखने ही से यह निश्चय हो जायगा कि ये काम उन्हीं के थे जिन्होंने किये और यह भाग वा हिस्सा विद्या का उन्हीं के वाटे में भगवान ने दे दिया, फिर न केवल एक विद्या किन्तु क्या ज्योतिष, क्या व्याकरण, क्या न्याय, और क्या मीमांसा, क्या सांख्य, और क्या योग, क्या वेदान्त, क्या शिक्षा, कल्प, निरूक्त, वैद्यक शास्त्र, काव्य, रसायन, सङ्गीत, शिल्प, तन्त्र, मन्त्र, भूगोल, इतिहास, गणित, और नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण, नाटक, प्रहसन भाँड़ और कहाँ तक कहें क्या न था; इन पूर्वोक्त विद्याओं में जो बड़ी है, बड़ा मज़ा है कि वे प्राचीन हैं।

यद्यपि अब महात्मा मुहम्मदीय मतावलम्बी बादशाहों की कृपा से हमैं उस समुद्र का एक चुल्लू पानी मिलना बच कर शेष रह गया कि जिसके इतने बच रहने का भी आश्चर्य है, ईश्वर की सष्टि जो कभी किसी वस्तु से रहित नहीं होती, अतएव लाख उपद्रव अग्नि से जली रस्सी की ऐठन से उसके पूर्व रूप का अनुमान करना पड़ा, तिस पर ये सब आज मौजूद और प्रस्तुत मिलते फिर उस संस्कृत के चमकीली चमक की क्या दशा रही होगी स्थाली पुलक न्याय से जानने योग्य है।

निदान जब वह देववाणी अर्थात् शब्द भाषा जो मनुष्य के सृष्टि के साथ स्वयम् सृष्टि पाई, अथवा सृष्टि में आई अर्थात् मनुष्य के यात्मीय विषयों में गणना योग्य हुई, वा नेत्र में दृष्टिं और नासिका में गन्ध के तुल्य रसना इन्द्री में रस ज्ञान के संग वाक् शक्ति भी आई अर्थात् बोल निकली और स्वाभाविक उत्सति से उत्पन्न हुई, जैसे कि घोड़े का हिनहिनाना, हाथी का चिंधाइना, गदहे का रेकना, कुत्ते का भौंकना, एवम् मोर का कूकना, सारस का चीखना इसी रीति भुजंडियों का "ठाकरजी". एवं "नवीजी भेजो" इत्यादि की रीति जैसे प्रायः बहुतेरी चिड़ियाओं का सार्थक शब्द तथा पद और वाक्य का कहना, अथवा ईश्वर की स्वाभाविक शिक्षा से शिक्षित हो अपने कंठ वा जिलासे उनके प्रयोजन के अनुसार तथा रूप गुण के तुल्य बोली का बोलना