पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/३९

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नागरी भाषा (या इस देश की बोलचाल की भाषा)

सीखना वा आरम्भ किया, मनुष्य भी अपनी बोली बोलने लगा। लोग कहेंगे कि इस बोल को तो आप अपनी ओर से सार्थक बनाते हैं और आपके मानने से वे सार्थक होती हैं, किन्तु हैं वे निरर्थक, नहीं तो वे भला अज्ञानी जीव सार्थक शब्द क्या जाने? परन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है क्योंकि मानने ही से शब्द सार्थक होते हैं, यदि न माने जावें तो क्या, घट का अर्थ बड़ा न मानने वाले को कौन समझा सकता है, लड़का यदि रोटी को टोटी पुकारे जब तक हम उसे रोटी का वाची न मानें कैसे काम चलेगा, वा किसी पञ्जाबी के कोड़ा कहने को घोड़ा वा बंगाली के लक्सी कहने को लक्ष्मी न माने तो कभी ठीक न होगा क्योंकि जिस शब्द के जिस वस्तु के अर्थ के दर लिए एक मंडली के मनुष्यों ने नियत किया है वहीं उस अर्थी का अर्थ है; रहा यह कि वे अज्ञानी जीव केवल निष्प्रयोजन और व्यर्थ बोलते हैं वस्तुतः उनसे कुछ अर्थ से सम्बन्ध नहीं रहता तो यह सन्देह केवल इसी बात पर ध्यान देने से जाता रहता है कि प्रायः देखने में आया है कि एक चिड़िया बोली बोली, और सब वहाँ पहुँच चारा चुगने लगी, किसी प्रयल पक्षी को देख एक बोलो बोली कि सब एक साथ उड़ गई, तो इससे निश्चय हुआ कि पशु पक्षी आदि भी केवल व्यर्थ बोली नहीं बोलते किन्तु वचन द्वारा अपनी भावश्यकता के अनुसार अपने कार्य को साध्य कर सकते हैं। निदान इसी रीति मनुष्य भी प्रथम जो स्वाभाविक सार्थक वचन बोलने लगे उसी का नाम देववाणी अर्थात् देवताओं की बोली अथवा ईश्वरी बोली या अमानुषी भाषा वा जिसकी रचना मनुष्य द्वारा न हो केवल दैवी कृपा और कर्तव्य से हुई है; क्योंकि यदि वह कहै कि भाषा मनुष्य ने बनाया, और जो जो वस्तु देखते गए एक एक शब्द उसके लिए नियत करते गए, तो यह बात ध्यान में नहीं जंचती, क्योंकि मनुष्य की तो इस रीति पर व्यवस्था हुई, परन्तु भुजङ्गी को ठाकुर जी व इसके तुल्य वाक्य बोलने का किसने नियम किया कि जिसमें आज तक कुछ भी हेर फेर न हुआ; इससे निश्चय हुआ कि ऐसा नहीं है।

देखिये प्रथम जब लड़का बोलना श्रारम्भ करता है "माँ ऐसा शब्द उच्चारण करती है, यही कारण है कि प्रायः माता शब्द मकार से अधिक सम्बन्ध रखता है, यथा माँ, माई, माता, मातर, मादर, मदर, माँमा, अम्मा, अम्बा, इत्यादि परन्तु जैसे शुक सारिकादि पक्षी मनुष्य के सिखाने के अनुसार शिक्षित हो बात चीत करने लगती हैं, और आश्चर्य जनक व्यापार और