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कजली की कुछ व्याख्या

नीमटर बनानेवाले शुद्ध बना भी नहीं सकते, तब गानेवालों की कौन कहे। प्रवीण रचयिता ऐसे ऐसे भावों को कोमल करते, परन्तु वह याही जाते हैं। जैसे कि मझौली के महाराज कुमार लाल खङ्ग बहादुर मल्ल—

दिल पर लगा इश्क का ख़ञ्जर अब तो जीना है मुशकिल॥

अब देखिये, इसी के आसपास का भाव कजली की सच्ची भाषा और बनावट में कैसा सुहाता नाता है—

तोरे दँतबा के बतिसिया जियरा मारै गोदना।
अथवा—
मुलनियावाली हँसिकै जियस लैगेली हमार।

इसीलिये अधिक चतुर लोग ऐसे भाव अपनी कविता में आने ही नहीं देते। जैसे यहाँ के प्रसिद्ध उर्दू भाषा के कवि मौलवी सर्फराज अली साहन जख्मी ने वियोगवर्षा में—

किस्मत देखिये हमारी हम से यार बेखबर।

परिक्षार्थ मैंने भी कई भाषाओं और उर्दू में भी कजलियाँ बनाई, किन्तु मेरी समझ में उसमें सफलता न हुई। उसकी बनावट की सजावट वैसी ही हई कि जैसी हमारी देशी कृस्तानियों पर मेमो की काली पोशाक की।

जो हो, परन्तु इसमें संदेह नहीं कि ऐसी ही भूल में लावनीबाजों ने लावनी का जन्म नष्ट कर दिया पुरानी लाबनियों में जो रस मिलता है, वह इन नये खयालबाजों के ख़याल वा ख्वाब वा खयाल में नहीं आने का। व केवल उर्दू भाषा की चाह के चाह में पड़ बिलकुल ही बेबस हो, बस, गुल, और बुलबुल, वा लैली मजनू के मजनन बनकर गोर और कफन हूँढने लग! उन्होंने इसे कुछ न समझा कि निज नागरी भाषा में रेखता वा उर्दू भाषा और उसके कछ साधारण छन्दों के अनुकरणार्थ लोगों ने रेखता (भाषा गजल) की भाँति इसकी भी सृष्टि की थी, जिसकी भाषा कदाचित् छु उर्दू और उसमें भी आज कल की लखनवी उदूलो कदापि न होनी "चाहिये। यदि ऐसी कविता इष्ट है, तो पारसी के छन्दों और भाव के नंग गजल बनाने वा गाने में क्या पाप है? हम यहाँ पर कच पुरानी लापनियों के एकाध तुक दिखलाते हैं कि जिससे यह देख पंडगा कि आगे से उसका अब कैसा कुछ कायापलट हो गया है। यथा—