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प्रेमघन सर्वस्व


ऊपर लिखे क्रम के अनुसार अब हमारी भाषा, भारतभारती के अंकुर से क्रमशः उन्नत होती, अनेक अवस्थाओं के भिन्न भिन्न रूपों में परिवर्तित होती, मानो भाषा वृक्ष का मुख्य स्तम्भ स्वरूप है। अन्य सब ग्रान्तिक भाषायें जिसकी शाखायें हैं, जिनमें कोई पुष्ट और कोई पतली, कोई दीर्घ और कोई लघु हैं। सारंश हमारी भाषा का क्रम आरम्भ से अन्त तक एक प्रकार मूल से अब तक लगा चला आ रहा है और इस की प्रधानता अद्याप वर्तमान है। जितना इस का विस्तार और प्रचार है, औरों का नहीं है क्योंकि यह मुख्य वा मध्यदेश की भाषा है। जहां सदैव साधु वा नागरी भाषा का प्रचार रहा और जहाँ से मूल भाषा का विकास प्रसरित होता हुश्रा, अन्य प्रान्तों में जाकर अपने स्वरूपों को विशेष परिवर्तित करता रहा है, जैसे खान से निकलकर रत्न दूर दूर पहुँचकर सुधार और सँवारे जाकर दुसरा रूप धारण कर लेते हैं। इसी से भगवान् मनु आशा करते हैं कि—एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वख चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः।

हमारा यह मध्य देश मानो भगवती भारती के परिभ्रमण का प्रधान पुष्पोधान है, उस में भी यह ग्रैंड टङ्क रोड मानो भाषा भारती की भी ग्रैंड टङ्क रोड है; जो सदा देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक निरन्तर चलती रही है। भारत के प्रधान तीर्थ यात्रियों की भांति भाषा का भी कोई पथिक ऐसा नहीं कि जिस से इस का परिचय न हुआ हो। अन्य सब उपभाषा रूपी सड़के सदा इस की शाखा वा सहायक स्वरूप रही हैं और इसका सम्बन्ध सदा सब के साथ समान रूप से रहा है। सबसे इस से थोड़ा बहुत अब भी व्यवहार बना

हम यहाँ कुछ ऐसे संस्कृत शब्द दिखलाते हैं कि जो आज भी ज्यों के त्यो हमारी भाषा में व्यवहुत होते और जिनके लिये उसमें प्रायः कोई दूसरे शब्द नहीं प्रयोग किये जाते हैं। जैसे कि,—

बल, हल, पल, खल, बन, मन, तनु, धन, जन, दूर, सूर, नदी, शीत, वर्षा, समुद्र, वसन्त, अन्त, साधु, सन्त, दिन, रात्रि, राजा, कवि, काम, क्रोध, इत्यादि।

जिनके अर्थ के वाची आज हमारी भाषा में दूसरे शब्द नहीं हैं। इसी भाँति अधिकांश दिनों, तिथियों, महीनों, नक्षत्रों, तारागणों, तीर्थो, नगरों, रागों, स्वरों, और बहुधा अन्न, फल, फूल, पशु, पक्षी, औषधि, वृक्ष आदि.