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प्रेमघन सर्वस्व

पाहन हों तो वही गिरि को, जो कियो कर छत्र पुरन्दर धारन।
जौ खग हों तो बेसरो करौं वा कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन॥

महाकवि बिहारी लाल—

रह्यो चकित चहुँधा चितै चित मेरो मति भूल।
सूर उदै आये रही दृगन साँझ सी फूल॥
हम हारी के कै हदा पायन पारुयो प्योरु।
लेहु कहा अजहूँ किये तेह तरेरे त्योरु॥
बिछुरे जिये सकोच गुनि मुख सों कड़े न बैन‍।
दोऊ दौरि गरे लगै लगे किये निचौं हैं नैन॥
मैं तपाय अय ताप सो राख्यो हियो हमाम।
मत कबहूँ प्राव इहां पुलकि पसीजे स्याम॥
हाहा बदन उघारि हग सफल करै सब कोय।
रोज सरोजनि के परै हँसी ससी की होय‍॥

रहीम—

रहिमन राज सराहिये जौ बिधु के बिधि होय।
कहा निगोड़ो तरनि यह उक्त तरैयन खोय॥
धूरि उड़ावत सीस पैं कहु रहीम किहि काज।
जिहि रज रिवि यतनी तरी तिहि ढूँढत गजराज।
जो गरीब सो हित करै धनि रहीम वे लोग।
कहाँ सुदामा बापुरो कृष्ण मिताई जोग॥

अब बतलाइये कि यह लालित्य और माधुरी दूसरी किस भाषा में लभ्य है? उर्दू बिचारी को तो इस का स्वप्न भी असम्भव है।

ब्रजभाषा में बहुतेरे इसी श्रेणी कवि हुए हैं जिनकी कविता के उदाहरण अथवा उनकी समालोचना करने को यहाँ स्थान नहीं है। इसी से केवल इतना ही कहना यथेष्ट है कि यदि देववाणी वा संस्कृत की प्रार्ष भाषा के स्थान पर हमारी भाषा में चन्द की कविता है, तो सूर, व्यास, वाल्मीकि हैं। यदि केशव श्रीहर्ष तो बिहारी कालिदास हैं; योंही यदि माघ की कविता का स्वाद देनेवाला देय है, तो भारवि भिखारी दास हैं। यदि रहीम को पंडितराज जगन्नाथ कहें तो श्रानन्द धन को गोवर्धनाचार्य और हरिवंश को जबदेव कह सकते हैं। यह केवल आशिक उपमाये हैं। नहीं तो और तुलसी