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भारतीय नागरी भाषा


बाबू हरिश्चन्द्र न केवल गद्य ही अनेक प्रकार की लिख सकते थे किन्तु कविता भी सवी चाल की करते थे। उनके पिता उनसे भी अच्छे कवि थे किंतु केवल पुरानी चाल की ब्रजभाषा ही के। उनके रचित ४० ग्रंथ हैं जिन में उन की प्रौढ़ कवित्व शक्ति का परिचय मिलता है, यथा—सोयजबरन दोय लोयन लसै ललाम जोय जोय होय रही रतिमति हारी सी। समर समर जीलि लेवे को अमरमति नाजुक कमर अति असि बसुधारी सी। गिरधरदास मह मह महकति देह लहकति कांति विजु पाति उँजियारी सी। सारी जर तारी भारी भूखन सँवारी नारी कीरति कुमारी प्यारी दीपति दिवारी सी।

बाबू हरिश्चन्द्र सबो कुछ लिख सकते थे। परंतु समाचार पत्र सम्पादक वैसा कोई फिर आज तक न हो सका। हँसी दिल्लगी के मजमून तो वह ऐसा लिखते कि कैसा कुछ। उन्होंने हमारी भाषा में सामयिक लेख और कविता की चाल चलाई, स्वदेशानुराग उत्पन्न किया और जातीयता का बीजारोपण किया। इस अंश में वह अनूठे हुए।

राजा साहिब यदि कंसर्वेटिव थे तो बाबू साहिब लिबरल। वे सदैव राजा के पक्षपाती थे तो ये प्रजा के, वे यदि अपनी उन्नति को प्रधान समझते तो ये देश और जारी की उन्नति को। इसी से उनसे इनसे क्रमशः बैमनस्य भी बढ़ा। उन्होंने इन की वृद्धि में बड़ी हानि की। और उन्होंने उन्हें देश की आंखों से गिरा दिया। अन्त तक इन दोनों का बैर बढ़ता ही गया और मेल न हुआ।

जो हो ये दोनों काशीवासी गुरू और चेले हमारे सम्मान के भाजन हैं चयोंकि हमारी वर्तमान भाषा के यही दो प्रधान संस्कारक वा परिपोषक हैं। इस देशरूपी खेत में जो हमारी भाषा का बीज छिप रहा था उसे लल्लूलाल रूपी वर्षा ऋतु ने अङ्करित किया तो शिवप्रसाद शारद ने उस बल बूट का आकार दिया और हरिश्चन्द्र बसन्त ने फल फल दिखलाये। अथवा यों कहें कि यदि लल्लू लाल उसके जन्मदाता तो राजा साहिव उसके पालनकर्ता है क्योंकि उन्हों ही ने इस भाषा को ऐसा रूप दिया कि जिस से वह उद से टक्कर लेने में समर्थ हुई, जिसे पढ़कर लोग लेख का आनन्द पाने लगे और यह समझ सके कि उर्दू को छोड़ हिन्दी में भी लेख लालित्य दिखलाई जा सकती है बाबू साहिब मानो उसके शिक्षक थे कि जो उसके अनेक गुण लोगों को दिखला सके, अथवा राजा साहिब की जगाई भूख को यह भांति भाँति के सामन्त्री देकर तृप्ति दे सके।