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भारतीय नागरी भाषा


काशी आकाश से कुछ प्रकाश फैला चल था कि साथ ही उसके उनका अनुयायी भारतेन्दु उगा और अपनी द्वितीया की सूक्ष्म कला की मन्द ज्योत्सना उद्योग के संग साहित्य सुधा सिञ्चन में प्रवृत्त हुआ और हमारी नवीन भाषा का कोलाहल हो चला, जिसका उद्योग पूर्ण सफलता को प्राप्त हो आज मानो द्वादसी के मयङ्क मरीचिमाला से भारत को उँजाला कर रहा है।

महाशयो! क्या राजा शिवप्रसाद का इतिहास तिमिरनाशक नाम आज चरितार्थ नहीं हो रहा है? क्या यह हिन्दी इतिहास का उजला पृष्ट नहीं है? तब जहाँ दो चार भी हितैषी वा सेवक इसके न थे इज सहस्रों की संख्या आपके सन्मुख उपस्थित है, तौभी क्यों कुछ लोग कहते कि हिन्दी की वास्तविक उन्नति नहीं हो रही है? क्या यह सच है? यदि सच है, हम पूछेगे कि क्या उसके देश भारत ही की हीन्नावस्था नहीं है? क्या प्रार्य राजराडेश्वरों के समय का सा सुख स्वास्थ्य समृद्धि और स्वच्छन्दता आज इसे प्राप्त है? आप कहियेगा कि नहीं। फिर भी क्या पिछले दिनों से अाज इस की किसी अंश में कुछ भी उन्नति नहीं हो रही है श्राप अवश्य ही कहेंगे कि हाँ होई रही है। उसी प्रकार हमारी मापा को अनेक अंशों में अवश्य ही उन्नति हो रही है। ईश्वर की कृपा से जब इसकी पूर्ण उन्नति हो जायगी तो निश्चय रखिये कि भारत की भी पूर्ण उन्नति दिखलाई पड़ने लगेगी।

आप आज भारत को आपूर्ण और अमेरिका के नये देश और उनकी गति विद्या और सभ्यता की चमक दमक देख भारत की हीनावस्था पर उदास हैं किन्तु यह नहीं सोचते कि कल के लहलहाते पौधे हैं, जा से ये उगे हैं भारत तब से बिगड़ता बिगड़ाता भी अभी इस दशा पर स्थिर है। यही दशा उसके और उस के उक्त अंगों की भी जानिये। आप उसी प्रकार भारत की कुछ नई भाषायों के मिलान से अपनी भाषा के हीनावस्था पर विषाद प्रकट करते हैं किन्तु यह नहीं विचार करते कि जितना उनका आज साहित्य है, आप की भाषा उतना कीड़े मकोड़े और दीमकों को अर्पण कर चुकी है, याही वे भी उन्हीं नये देशों के समान कल के पौधे हैं, कि जो हमारी पुरानी भाषा के आगे अपने रंग रूप पर अभिमान कर रहे हैं। जितनी विपत्ति भारत पर पड़ी उस के एक अंश के पड़ने पर भी वे नये देश जड़ गाम हो गये हाते। परंतु यह सौ सौ सांसतों को सहकर भी सांस लेइ रहा है। संसार के अनेक प्राचीन देश और जाति जो इससे जेठी भी न थीं, आज कबी काल के गाल में विलीन हो गई, परन्तु यह जीता जागता ही है, वैसे ही आज की नवीन प्रान्तिक