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प्रेम घन सर्वस्व

छयया चुहचुहिया, चम्भे कैसे सुन्दर संग के साथ सबका ताल गिराते; टिटहरो, उल्लू , खूसट' भयंकरी इत्यादि विहंगों ने चतुरंग तराना, तिखट की अलाप अलापा कि जिसै सुन सुजान सरहँस विवस हो लगे।

संगीत रस के एक मात्र प्रथम श्रेणी के रसिक सिखी समूह भी षड्ज स्वर से कराहने लगे, इधर जब कोइले पञ्चम स्वर को संवार गिट गिरी भर भरकर कुकने लगी, तो उधर पपीहे भी ऋषभ स्वर को साध पिंहकारने लगे; अब जो पीय पीहो! रिया कहाँ की? की धुन सुन परी-विचारी कृष्णाभिसा-रिका नायिका कि जो इस समय असित सिंगार साजे स्याम निसामें मिलीं पूर्वोक्त भुजंग मणियों से प्रदर्शित मार्ग में शीघ्र बेग से अपने प्रीतमों से मिलने जाती थीं रुककर सोचने लगी कि है! क्या वह वहाँ नहीं! (सोचकर), है, ये तो पापी पपीहा है? अरे ये दई मारे! इतनी देर कर भला तुझे क्या फल मिला? तदपि ऐसे कह कर चली, एर तो भी विप्रलब्धाओं की भाँति चित्त में सोक सरिता की कहर लहरें उठने लगी, और बिपलब्धाऐं नदी कूलस्थ वृक्षों की भाँति जीवन से हताश हुई, बासकसज्जाएँ कि जो सुथरी से नै सबार सोलहो सिंगार साजे दर्पण में अपने आनन की दुति देव प्रसन्न मन पिया के पैर की आहट सुनने को ध्यान लगाए बैठी थीं, सुनते ही उनके मायक मुख की दुति मन्द हुई, मन पर भानो नैराश्य की घटा बिर याई, और उत्कंठिताओं की भाँति उत्कंठा की अधिकाई होने लगी, फिर उत्कंहिता की उत्कंठा के पूर्ण समय में जो यह बोली सुन पड़ी गोली सी लग गई मूर्छित हो भयंक मुखी पर्यङ्क पर विजली सी गिर पड़ी,प्रागत पतिकावों की पारखें फिर सावन भादों सी मोतियों की लड़ी सी ग्रासुवों की झड़ी लगा दिया, सीपी उसासों के सहारे सहेलियों से कलेजा थाम कहने लगी कि अरी! संखिये की पुड़िया और हलाहल का प्याला जल्दला!! बस अब मैं जी चुकी और वे पाचुके!!! मुग्र्धा प्रयत्स्वत्पतिका मोरी भामिनियों ने चौकन्नी हो चित्रमृगी सी टकटकी लगा सोच कर फिर व्याकुल हो कहने लगी कि हाय! मैं कुछ नहीं जानती! तू उसी विसासी से यूछ! मैं तो अब मरने जाती हूँ। मुझे इतना अवकाश कहाँ जो बताऊँ कि वे कहाँ जाँयगे, हाँ! मेरे प्राण अवश्य सुरपुर जाते हैं वे चाहे जहाँ जाय, इससे मुझे क्याः अब वे विधवदनी वियोगिनी वाला अर्थात् प्रेषित्पतिकावों की कौन दशा कही जाय कि जो इस धुनि को सुन चौकी, आँखे खुली तो छाती पर हाथ पटक कर बोली कि आइ! अब क्या करूँ? कहाँ जाँऊ? क्या खाँऊ? और कैसे मरूँ? न जाने