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संयोगिता स्वयम्वर और उसकी आलोचना

जाते हैं" बस अब युद्ध की सूचना हो गई। अब इसके आगे फिर युद्ध करान की कोई आवश्यकता न थी, परन्तु जो कि साहित्यकार और नाट्य शास्त्र के आचार्य युद्ध कराने को नाटक में मना करते हैं, यथा—

"दुराह्वानं बधो युद्धम् राज्यदेशादि विप्लवः" उसे आप क्यों न करें, खास कर के जब आपको वेणीसंहार का सत्त निकालना मंजूर है।

द्वितीय गर्भाङ्क। रणभूमि—इस गांङ्क में कवि युद्ध कराता है। [पृ॰ ६१] देखिये—"पृथ्वीराज की सेना चक्रव्यूह रचकर खड़ी है। युख बाजा बज रहा है" (यहाँ तक मालूम होता है कि युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ। परंतु अभी से वीभत्स वर्णन (बावली तो बनी ही नहीं मगरों ने डेरा डाल दिया) "रंगभूमि में जगह २ रुधिर, मांस, मजा बिखर रहे हैं, जहाँ तहां अनेक घायल और मृतक शरीर दृष्टि आते हैं, शस्त्र और भूषण वस्त्रादि रुधिर से भरे पड़े हैं, मांसभक्षी जीव इधर उधर फिरते हैं" (धन्य आप की लिखावट) अब इसके आगे बेणीसंहार और विशेषतः अश्वत्थामा और करण के झगड़े की खराबी करने के लिये आप ने केहर कठोर और आतताई की सचमुच लड़ाई ही करा दी। और कथा सचमुच युद्ध का नाट्य करने के लिये कोष्टों के भीतर पृष्ठके पृष्ठ लिख डाले। बीच २ में सिंदूरा और काफी का गान भी [पृष्ट ६५] के खं खं गं ग लिख कर पूरा किया है। विष्कभक प्रवेशक से कसम खाकर नहीं चल सका तब बीच २ में चंद से काम लिया और कालिदास होने के उल्लास में कालिदास के रखु को लघु बनाने को उद्यत हो रत्न जटित पत्रे के पत्रं उजाड़ लाये, जैसे [पृष्ट १७] "जो बीर यहाँ शरीरं छोड़ते हैं तत्काल दिव्य देह पाकर स्वर्ग से आप ही अपने कबन्ध को लड़ते देखते हैं।

"कश्चिद्विषत् खङ्गहतोत्तमाङ्गः सद्यो विमानं प्रभुतामुपेत्य।
वामाङ्गसंसक्तसुरागस्वं नृत्तय् कबन्धं समरे ददर्श"

[पृष्ट ६८]"मरे पीछे भी स्वर्ग में एक अप्सरा के लिये दोनों वीर झगड़ते हैं।" ्

"अमत्र्य भावेपि कयोश्चिदासी देकाप्सरा प्राथित योर्विवादः"
"वीरों के कटे शिर भी दांतों से होठ काटते ही बने रहे"
"सरोषदष्ट्धिक लोहितोष्ठैः" इत्यादि