पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४७३

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बंग विजयता की आलोचना

यह हिन्दी में मनोहर और अनूठा उपन्यास बना, और इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह ग्रन्थ उपन्यास के समस्त गुणों से युक्त है विशेषता यह कि आर्य भाषा में भी होकर अंगरेज़ी प्रबन्ध और प्रणाली से युक्त है, क्यों न हो जब कि रचयिता इसके अनन्य आर्यं कुल भूषण सुविख्यात श्री रमेश बाबू हैं, और अनुवादकर्ता सुयोग्य हमारे मित्र, इस कारण हम अन्य कत्ता और अनुवादक के विषय में अलग अलग समालोचना करना उचित समझते हैं।

अनुवाद के विषय में हमें विशेष वक्तव्य नहीं है क्योंकि वह प्रचलित साधु भाषा में ज्यों का त्यों लिखा गया है और ढंग भी अच्छा है, केवल कहीं कहीं अप्रचलित शब्द अवश्य आ गए हैं; अथवा कहीं कहीं व्याकरण की अशुद्धि और छापे की अशुद्धियां मिल जाती हैं परन्तु उसे हम कोई विशेष दोष नहीं मानते, किन्तु अंगरेजी कविताओं के वे शीर्षक छंद जो प्रत्येक परिच्छेदों के आदि में ग्रन्थकर्ता द्वारा संग्रहीत, और सन्निवेशित किए गए, और मानों वे तत्वरूप हैं उसका अनुवाद नहीं किया गया, यही कसर या भूल आलस्य या दोष अनुवादक का हम मानते हैं। यदि यह भूल अन्धका की मान कर मक्षिका स्थाने मक्षिका लिखना अनुवादकर्ता अपना धर्म मानते हैं तो भी हम उनसे पूर्णरूप से सहमत नहीं इसलिए की बङ्गालियों 'में अंग्ररेज़ी का बहुत ही प्रचार है अस्तु हम अपने मित्र से आशा रखते हैं कि वे पुनरावृत्ति में इस न्यूनता को मिटा कर विशेषता सम्पादन करेंगे। अन्त को हम अनुवादकर्ता के सफल परिश्रम से धन्यवादित होकर के अन्यकर्ता के विषय में अपनी सम्मति सूचित करते हैं तो इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि उपन्यास सर्वतोमावेन उत्तमोत्तम है जैसा हम पूर्व में प्रकाशित कर चुके हैं, परन्तु इसके गुण दोष को भी साधारण रीति पर प्रकाश करना उचित समझते हैं।

प्रथम परिच्छेद का पूर्व भाग जो पञ्चम पृष्ठ के आधे में समाप्त होता है, और जिसमें बङ्ग देश का इतिहास लिखा गया है, हमारी जान यहाँ पर न लिखा जाना चाहिए, क्योंकि वह उपन्यास का कोई अङ्ग नहीं यह ऐतिहासिक विज्ञप्ति भूमिका द्वारा प्रकाशनीय है।