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नागरी के समाचार पत्र और उनकी समालोचना

वंचित हो कुछ २ खो भी बैठते हैं एवम् अनेक सत्कवि और अच्छे ग्रन्थकारों की भी हानि होती है, क्योंकि इनके मीठे मुख की प्रसंशा भी शंकाजनक रहने से नवीन पुस्तक पाठक वा सामान्य स्वभाषा प्रेमियों की श्रद्धा पूर्णतः उत्तेजित नहीं होती। जैसे कई श्रेणी के ग्रन्थकार होते, वैसे ही उसने ही श्रेणी के पत्र सम्पादक भी हैं, उतने ही श्रेणी की उनकी योग्यता और उनके पत्र का गौरव, परन्तु यह भी स्मरणीय है कि-छोटे भी बड़ों ही का अनुकरण करते हैं, और बड़ों ही पर छोटों के सुधारने और सँभालने का भार भी है। इसी भांति इसमें एक सब से बड़ी कठिनता यह भी है कि ग्रन्थकार तो भिन्न २ अनेक कला कुशल होते और एक सम्पादक बेचारा कहां तक सब विषय की पाण्डित्य रख सकता। यही कारण है, कि नित्य नवीन उन्नतिसम्पन्न अंग्रेजी भाषा के प्रतिष्ठित समाचार पत्र सम्पादकों को बहुत सी भिन्न २ विद्या शास्त्रों के गूढ़ ग्रन्थों की समालोचना विशेष व्यय करके उसी विद्या और शास्त्र के महापण्डितों के द्वारा करानी पड़ती है। परन्तु वह दिन हमारी हिन्दी वा नागरी के कहां? यहां तो बहुत श्रम कर और अच्छे से अच्छा ग्रन्थ लिख कर भी ग्रन्थकर्ता अथवा पत्र सम्पादक पछताता, और श्रम छोड़ कर छपाई का भी व्यय नहीं पाता! तब इसकी कथा ही क्या है? परन्तु आक्षेप तो इस पर है कि जो जन योग्यतासम्पन्न और समर्थ भी हैं वे ही प्रायः इसके विरुद्ध श्राचरण करते और उपर्युक्त विषयों पर विशेष ध्यान नहीं देते! जिससे कई प्रकार की हानि होती इसी भांति अनेक जन व्यर्थ भी हाथों में पिसान लगा कर भण्डारी बनने पर तत्पर हो जाते। और यद्यपि विच्छ्र का भी मंत्र नहीं जानते परन्तु साँप के मुख में अंगुली डाल देते हैं। जिससे अनेक प्रकार की हानियां होती! परन्तु क्या किया जाय, कि इसमें अनेक काठिनाइयां आ पड़तीं, जिनमें कैयों के वर्णन तो हम ऊपर कर चुके हैं, परन्तु वे उतनी ही नहीं वरंच अनेक और भी अद्भुत और दुनिवार्य हैं, फिर सामान्य पन सम्पादकों के अतिरिक्त विशेषों को और विशेष आशंका और उपद्रव के सन्मुख आना पड़ता, जिसकी यहां कुछ भी चरचा चलाना इस प्रबन्ध को मानो शास्त्रार्थ का विज्ञापन बनाना है। अस्तु इनहीं बातो को विचार कर हम नीरद में समालोचना लिख नाही छोड़ बैठे थे, क्योंकि-हम सामान्य भाव से आंख मूंद कर सब ग्रन्थों की प्राप्ति स्वीकार मात्र करना कदापि नहीं चाहते और न झूठी प्रशंसा, फिर साथ ही सच्ची समालोचना करते भी डरते हैं, क्यों कि सच्ची समालोचना