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प्रेमघन सर्वस्व

करना मानों व्वर्थ अपने अनेक बैरी बनाना है। फिर जिस कार्य में लाभ तो नहीं, और हानि इतनी उसे क्यों करैं परन्तु इसमें भी इसके अतिरिक्त कि अनेक सुलेखकों के प्रति उचित कर्तव्य से हम शिथिल होते, और आकृतज्ञ बनते सर्वसामान्य पुस्तक प्रणेता और पत्र प्रेषकों से भी निपट निरुत्तर बन जाते हैं? यदि केवल उत्तमों ही की प्रशंसा कर दिया करें, तो यद्यपि केवल प्रशंसा के लिए विशुद्ध गुण ही का मिलना दुर्लभ है, अन्याय भी होता, फिर कहिये अब इस कठिनता से बचने की कौन युक्ति सुलभ है?

यद्यपि हम लोगों की सच्ची समालोचना से परिचित अनेक पुस्तक प्रणेता हमें स्वयम् अपनी पुस्तके ही नहीं भेजते, और हम लोग भी उन्हें हर्षपूर्वक धन्यवाद देते हैं, तो भी अधिकांश जन भेजा ही करते और हम उन्हें एक स्थान पर अबतक रक्खे जाते, और इसी बखेडे से बचने के लिये भूलकर भी नहीं देखते थे कि कदाचित् उसका फल समालोचना लिखना ही न हो, और अनेक माने जाने वाले सभ्य स्वरूप में ग्रन्थों के चोर लोग किसी न किसी भांति उनके बाहुल्य को नित्यप्रति न्यून करते ही जाते-तौ भी उनकी संख्या इतने दिनों के पीछे अधिक होई गई है। उनके प्रेषकों के पत्रों की भी भरमार है। उत्तर पचा जाने पर भी कैयों के कई पत्र आचुके और अब उस उदासीन वृत्ति को भी छोड़ना पड़ता है, और विचार करने से कोई उचित शैलो भी नहीं दिलखाई पड़ती।

निदान अब हमें भी विशेष रूप से अपने अन्य सहयोगियों का ही अनुगामी होना पड़ता है यद्यपि यह तो असम्भव सा प्रतीत होता, कि हम अपने सिद्धान्त को भूल अन्यथा प्रशंसा वा निन्दा करें तो भी अब यही उचित बोध होता कि बहुतेरी निःसार और निन्दनीय पुस्तकों की निन्दा न कर केवल प्राप्ति स्वीकार मात्र करदें और शेष की संक्षिप्त समालोचना अतः हमारा प्राप्ति स्वीकार मात्र देख पाठक वा पुस्तकप्रणेता केवल यह समझें कि इसमें समालोचना की आवश्यकता नहीं है, योग्यता ही नहीं है और समालोचित पुस्तकों का गुण दोष भी प्रायः उतना ही कि जितना उसमें लिखा गया है एवम् पुस्तक प्रणेता और पत्र प्रेषण कर्ताओं, विशेषतः अनेक उस समालोचना के लिये अाग्रह करने वालों से भी अत्यन्त नम्रता पूर्वक यह विनय है कि समालोचना करने में हम लोग यथा मति उसके सच्चे गुण दोष के प्रकाशित करने में बाध्य है। गुण कहने में यद्यपि कोई हानि नहीं होती, परन्तु अनेक गुणों की प्रशंसा सुन कुछ भी दोष दिखाने से लोग रुष्ट