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प्रेमघन सर्वस्व

हमें न मिला, और हम अपने रसिकों को बहुत सी आशा देकर भी कोई ऐसी अनोखी समा न दिखा सके कि वे देखते ही चकित और चौकन्ने हो वाह वाह कर उठते, एवम् कादम्बिनी कृत कुमारी नागरी के किसी शुभ अंग का कोई शृंगार वा सजावट और बनावट सुसज्जित रूप से अवलोकन न करा सके कि जैसा हम अपनी भांति और इच्छानुरूप चाहते थे। सदैव उसके छपके निकलने ही के लाले पड़े रहे, कारण यह कि पत्र विषय किसी संख्या का दो फार्म में आ सका, और विस्तार होने से इधर कई नम्बर एक में देने पड़े। हम लोगों ने यह विचार किया था कि जैसे ही हमारे थोड़े से भी पुष्ट ग्राहक हो जायँ, संख्या पत्रों की अधिक कर दी जाय, क्योंकि जब तक ऐसा न हो दो फार्म में हम अपनी कौन सी करतूत दिखा सकते हैं, कहावत प्रसिद्ध। है कि "बालिश्त भर की खंटी क्या ज़मीन में गाड़ें और क्या आसमान में"।

[यद्यपि अभी उसी पुराने विचार के अनुसार वही संख्या रखने का विचार है; पर यदि हमारे रसिकों ने हमें कुछ भी उत्साहित किया तो तुरन्त ही दूनी संख्या कर दी जायगी। हम यही नहीं चाहते कि हमारे ग्राहक गण पत्र पाते ही मूल्य भेज दें, किन्तु वे प्रथम तो अपना स्वीकार पत्र भेजे, और यथार्थ अपनी अभिरुचि प्रगट करें, फिर दो तीन संख्या देख कर वा जैसे चाहें मूल्य भेजे, हमने तो इस मसल को सच करना चाहा था कि "देना लेना क्या मुहब्बत बड़ी चीज़ है" अर्थात् कुछ दिन यह रत्न जो यथार्थ में अमूल्य है बिना मूल्य ही वितरण हो, क्योंकि बहुधा अरुचि का कारण भी यही हुश्रा करता है। परन्तु अभी तो यथार्थ रसिकों का निर्णय होई नहीं सकता, तब तो फिर "सर्व खल्विमिदम्ब्रह्म" का हाल होता सिवा इसके ऐसी प्रतिज्ञा की कहाँ तक स्थिरता रह सकती है, और फिर ऐसी दशा में कि जब उसकी दिन दिन उन्नति और चिरस्थाई होने की अभिलाषा हो, यद्यपि हम कह पाये हैं कि कादम्बिनी ने जैसा कुछ कर्तव्य करना चाहा था उसके समग्र रूप से पूर्ण करने का अवसर न मिला।

(छब्बीस ग्रंथों पर) समालोचना भी की लेकिन ऐसी नहीं कि पुस्तक में इतने पृष्ट हैं, या मूल्य है, यहाँ मिलती है किंतु ग्रंथ का तत्व खिंचा हुआ अपक्षपात सम्मति जिसे रिघिउ कहते हैं, यों ही अनेक धन्यवाद इत्यादि प्रेरित और अन्य जन लिखित विषय यथा "हिंदू शब्द का अर्थ" दार श्री काशिराज महाराज से प्राप्त, "इतिहास सार" मास्टर छेदीलाल' कृत,छत्तीस गढ़ का हाल श्री राजा जगमोहनसिंह लिखित, स्फुट कविता श्री बाबू