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पत्रिका की प्रार्थना

चाहिये। यह आवश्यक नहीं है कि समय मनुष्य हमारे प्रबन्ध पर प्रसन्न हों, किन्तु बहुतों की तो अप्रसन्नता और निन्दाही हमारी स्तुति और आदर सन्मान का हेतु है हम अपने थोड़े से सुविज्ञ सज्जन गुणग्राही रसिकों की थोड़ी प्रसन्नता को बहुत और अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं; और २ चाल के औरों की कुछ परवाह नहीं करते क्योंकि—

"आई न जौ बक बाबरे पैं द्विज देव जू हंसन की तौ गई गति।
मेढ़क मीन न मान कियो तौ भई है कहा अरविन्दन की छति।
उक्ति उदार कविन्दन की वन वासिन की सुभई न भई रति।
जौ पै गँवार खरीदीन तौ घट जाति जवाहिर की कहूँ कीमति"।

अब हम अन्त को अपने प्रिय रसिक चातकों से बेअदवी और असावधानी मात्र की क्षमा चाहते हुये यह प्रेम निवेदन करते हैं, कि ईश्वर की कृपा और श्राप लोगों की गुण ग्राहकता के आश्रय से सदैव यह आनन्द कादम्बिनी अवश्य आपको आनन्द प्रदायिनी होगी, और नित्य नई उन्नति करेगी और ईश्वर ऐसा ही करै।

 

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