पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/५००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६८
प्रेमघन सर्वस्व

कला चातुरी और वैज्ञानिक वैभवों के आशय भी अनुवाद के रूप में आकर उसकी पुष्टता के कारण हो एवम् समयानुसार आवश्यक सामाजिक और राजनैतिकादि विषय पर भी स्वच्छन्द भाव से अपनी उचित सम्मति प्रदान कर स्वदेश तथा राजा को चैतन्य करना। यों ही उस करतार की विहार भूमि संसार वाटिका में जो बहार और पतझार के अनुसार नाना प्रसूनों के प्रस्फुटित और रहित होने के कारण शोभा का प्रकाश, और हास होता है, उसकी कुछ चर्चा कर, घर बैठे ही विश्व भर की लहर दिखा देना है। और विविध रस-रसिक पाठकों को उनके इच्छानुरूप रसास्वादन करा के तुस कर देना है। कहाँ तक क्या क्या गिनाये आप लोग देखते जाये, और सच्चे चित्त से ईश्वर से यही मनायें कि वह निज दया दृष्टि की वृष्टि से इसकी पूर्ण सहायता करता रहे, और यह नागरी नीरद सचमुच नागरी नीरद हो।

इसके उपरान्त अत्यन्त नम्रता पूर्वक इसके प्रकाशक की ओर से समस्त सुजान विद्वान पाठक और सुयोग्य सहयोगी सम्पादक समूह की सेवा में निवेदन है कि आप सब इस नीरद के गम्भीर गर्जन को सुन अत्युक्ति और अनौचित्य का अनुमान कर न घबरायें, किन्तु इसके उस पियूष वर्षा तक ठहर जायें, कि जो रसज्ञ सहृदय हृदयधरित्री को हरित आदित कर देने में समर्थ है।

हम अवश्य अत्यन्त कृतज्ञता के साथ सधन्यवाद उन सब सजन समूह की शुभशिक्षा और साधारण सम्मति प्रदान को भी स्वीकार करेंगे, जो इसके अभाव के पूर्णता में समर्थ होंगी, किन्तु जो केवल स्पर्धा और ईर्षा द्वेषानल से जल कर इस नीरद के जल को केवल घृत की आहुति मानैं उनकी बात सुनने से लोग हमें क्षमा करें।

अन्त को आप सबसे कहनी अनकहनी बातों की क्षमा प्रार्थना पृर्वक उस जगदाधार करुणावरुणालय से सानुकूल सलिल सम्पति की याञ्चा है।