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प्रेमघन सर्वस्व

और युधिष्ठिर प्रभृति को ही रोना पड़ा, किन्तु राम कृष्णादि को भी तो सासांरिक सुख से हाथ धोना पड़ा तो भला अस्मदादि की कौन गणना है कि जो केवल माया मानस के दीन मीन, हर तरह सत्य, स्वच्छन्दता विहीन, नित्य नई नई मृग तृष्णा में लीन ही रहा करते हैं? निदान यह जानकर मान लेना पड़ा कि जैसे अनेक झगड़े और झमेले हैं, अकेले इसी से क्यों छुटकारा लेने के लिए यत्न किया जाय जैसे सब कर्तव्य हैं, यह भी एक परमावश्यक है।" इसमें सन्देह नहीं कि बीच में कई बरसों तक आप अवश्यही उरहने के योग्य न थे,क्योंकि ऐसे ऐसे झंझट झमेलों में उलझे रहे कि जिसकी सीमा नहीं परन्तु अब उससे सर्वथा सुलझ कर भी यह मौनावलम्बन कैसा? क्या उन बातों की कुछ भी सुध नहीं है?" हम कहते कि—हां, अवश्यही उसकी सुध नहीं है, और सुध पाने से एक प्रकार का खेद ही होता है, क्योंकि वह कुछ समय ही दूसरा था, अवस्था ही दूसरी थीं, वित्तही दूसरा था, और हमी दूसरे थे, साथी-सहयोगी, ग्राहक, अनुग्राहक और गुणग्राहक ही दूसरे थे, इच्छा और मनसूबे ही दूसरे थे, उमंग और उत्साह का रंग ढंग ही कुछ और था। तौभी यदि आप उसके आगे की कुछ पंक्तियां और भी स्मरण करते, तो यों ललकार और फटकार की डींग न हाँकते। जैसे कि तृतीय माला के प्रथम मेघ में यों कहा गया था, कि—"यद्यपि इसके प्रकाशकों को कदापि इस के द्वारा द्रव्य लाभ की इच्छा न थी, और न अब है; किन्तु कुछ हानि उठा कर भी अपने भाषा के प्रेमियों को मोहित करना मंजूर था परन्तु जब सच्ची चाह के बाज़ार में भी ठाले पड़ें, तो उत्साह के लाले पड़ने कुछ आरचर्य नहीं। सो केबल प्रशंसित रसिक चातकों के अतिरिक्त साधारण विद्वान, धनवान, एवं सर्व सामान्य मातृभाषानुरागियों से कादम्बिनी को कुछ भी सहायता न मिली और हमारे देशी राजा महाराजा लोग तो हिन्दी पत्रों को बे खोले ही अस्वीकार लेख लिख फेर दिया करते हैं। इसलिये कि ये उनके शुभचिन्तक हैं, "सारांश कादम्बिनी के डाक व्यय भर को भी उसका मूल्य अब तक न आया। यद्यपि हम तो अपना सिद्धान्त विगत माला में कह चुके हैं कि—'हम अपने थोड़े से सुविज्ञ सज्जन गुणग्राही रसिकों की थोड़ी प्रसन्नता को बहुत और अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं, परन्तु थोड़े और थोड़ी की बहुत ही थोड़ी संख्या हो जाने से थोड़ी उत्साह शक्ति भी थोड़ी हो जानी कुछ आश्चर्य थोड़ी है"

अस्तु, उस झंझट झमेले के दिनों ही में जिसकी चर्चा अभी आपने