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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

विश्वास के प्रकाश करने में भी लोग सशंकित होते थे, प्राणपण पूर्वक उसके उद्धारार्थ व्रती हो चले, और यह कैसे कुछ आश्चर्य का विषय है कि जिस बौद्ध धर्म का विस्तार भारतीय सीमा के सहसों कोस दूर दूर तक फैल रहा था और यद्यपि संसार में आज भी उसके अनुयायियों की संख्या सब मतों से अधिक है तथा जिस मत के बहुतेरे मूल सिद्धान्तों ही को लेकर ईसाई आदि मत गढ़े गये, वह अपने जन्म स्थान भारत से उसी लघु उद्योग द्वारा वित्तको कृतकार्यंता की कदापि किसी को कुछ भी आशा न थी, प्रायः लुप्त हो गयाज्ञके जहाँ की एक अंगुल भूमि भी उससे शून्य न थी।

अब बिचारिये कि तब सनातन वैदिक धर्म के यो निर्मूल होने अथवा उसके निर्मूल होने पर फिर बौद्ध धर्म के यहाँ से उच्छिन्न होने, एवम् सनातन धर्म के पुनः प्रचार पाने की कत्र किसे आशा हो सकती थी। परन्तु समय और ईश्वरेच्छा के अनुसार ऐसी ही अघटित घटनाये हुआ करती है कि जिसे मनुष्य समझने में सर्वथा असमर्थ हैं।

अब तनिक और देखिये, कि यद्यपि बौद्ध धर्म का नाश तो भारत से हुना, परन्तु सनातन वैदिक धर्म का वह रूप जैसा कि पूर्व समय में था, फिर यहाँ ठीक उस प्रकार पर प्रचलित न हो सका, क्योंकि अपौरुषेय 'वेदविहित, त्रिकालदर्शी ऋषि मुनियों से उपदेशित धर्म में नवीन प्राचार्यो की काट छांटने कुछ का कुछ करना प्रारम्भ किया। मानो नवीन मत 'रचना की लोगों में टेब सी पड़ गई नित्य नये नये आचार्य हो चले और अपनी छापनी डफलों में अपना अपना राम गो चले। बलात्कार निज निज। मत विस्तार की लालसा बढ़ी को व्यर्थ निल्य कलह का उपक्रम प्रारम्भ हुआ, जिस कारण देश की राजनैतिक दशा अत्यन्त शोचनीय हो उठी। बैर फूट की भरमार हुई, परस्पर मार झगड़े का व्यापार' ही यहाँ के लोगों का एकमात्र आधार शेष रहा! जब प्रतिद्धन्दी अपने पराक्रम से पराजित करने के योग्य न ठहरा, लोग दूसरे देशों से भाड़े के वीर माहान करने लगे यह न जाना कि यह उसे मारकर हमें कब जीता छोड़ेगा! परस्पर उसके सहायक हो हो कर एक दूसरे का नाश करके से कृतार्थ हो चले। विदेशी व्यात्रों को बों अलभ्य लाभ रुधिर का स्वाद चखा पराधीन हुए और यहाँ यवनों का राज हुआ।—

लोग अपने किये का फल भोग करने लगे, मार काट से तृप्त होते हुए यह कष्ट अनुभव कर चले कि जिसे उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था