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प्रेमघन सर्वस्व

दुःख दूर करने और सुख स्वाच्छन्द के समान अभिलाषी हैं। सारांश अन्य तीनों प्रकार की प्रजाओं की अधीरता अन्तिम सीमा पर्यन्त पहुँच चुकी है, तोभी राजा और प्रजा उभय पक्ष के समान अशुभकारी अनेक संकीर्ण इद अधिकारी यही कहते कि देश में सुख और शान्ति है। यह व्यय का झूठा आन्दोलन कुछ लोगों का दबाकर हम शान्त कर देने आश्चर्य है कि अनेक उच्च कर्मचारी जन मी इन्हीं झूठी और थोथी बातों पर विश्वास करते चले जाते हैं?

अब देखिये कि यद्यपि ये तीनों दल की भारतीय प्रजा इस प्रकार अधीर और आर्त है, तथापि उनमें केवल निज दुःखमोचन के अतिरिक्त कोई अंगरेजी राज्य के हटाने की इच्छा नहीं रखता। इसी भाँति हमारे वर्तमान सम्राट तथा अनेक उच्चाशय अंगरेजों में भी ऐसे सज्जन है जो चाहते कि भारतीत प्रजा के संग उचित न्याय किया जाय और कदाकि स्वप्न में भी कोई अन्यथाचार न हो, तौभी भारतीय प्रजा के संग साम्राज्य के अनेक अनुशासकों की ओर से ऐसे ऐसे कार्य होते कि जिनमें उनको अपने धैर्य और धर्म का संभालना भी असम्भव प्रतीत होता है, फिर इसे विधि की विडम्बना छोड़ और क्या कह सकते हैं?

यहाँ इस पचड़े के गाने से अभिप्राय केवल इतना ही है कि मन न्य सर्वथा-हित जानकर भी उसको करना नहीं चाहता, करने के अर्थ उन्नत होकर भी उसे नहीं कर सकता और सर्वथा ईश्वरीय इच्छा ही के वश रहता है। बड़े बड़े शक्तिशाली सम्नाट और महामात्य' भी अपने उद्दिष्ट साधन में सर्वथा समर्थ नहीं हो सकते, और न यह समझ सकते कि क्या करने से क्या फल होगा।

अब यदि हिन्दी साहित्य सम्बन्धी इतिहास पर ध्यान देते, तो वहाँ भी केवल उसी अधिकार का प्रचार पाते है। देखिये, एक समय वह था जत्र कि इने गिने केवल तीन जने नागरी वा हिन्दी के लेखक, वा अन्धकार थे। 'अथवा यो कहिये कि एकमात्र राजा शिव प्रसाद उसके परमाचाय थे। जिन्हों ने उस समय जो लिखा, श्राज तक फिर वैसी पुष्ट, सरस और धारावाही हिन्दी कोई न लिख सका। कुछ लोग तब से अब तक पारसी शब्दों को मिला कर निज लेख में वह लालित्य लाने के अभिलाषी रहे. किन्तु केवल इसी एक बात से उस नबात की मिठास कैसे मिल सकती है। उनके समक्ष उनके उत्तराधिकारी और शिष्य, अथवा समकक्ष का दूसरे आचार्य भारतेन्दु