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प्रेमघन सर्वस्व

आकाश कुसुमवत् कदाचित ही हों कि जिन्हें हम नहीं जानते, न हम ने सुना कि अमुक महाशय ने आमुक सुलेखक के दो चार सहन की कौन कहे दो चार शत मुद्रा भी देकर उसके उत्साह को बढ़ाया हो, कि जिसमें उससे प्रतिस्पर्धियों को उससे अधिक श्रम कर विशेष लाभवान होने का उत्साह होता। यदि विक्रम और भोज से उदार गुणग्राहक न होते तो कालिदास सरीखे कवि कदाचित न होते, यदि शहंशाह अकबर महाराज जयसिंह न होते, फ़ैज़ी, अबुलफज़ल या बिहारी लाल को लोग न जानते। आज जब हिन्दी का एक भी प्रसिद्ध उदार आश्रयदाता नहीं है, तो उसकी उत्कृष्ट दशा का उलहना भी व्यर्थ है।

जब सहृदय गुणग्राहकों ही की न्यूनता हो तो उस गुण का अभाव अथवा उसकी हीनावस्था होनी कुछ विचित्र नहीं जब किसी वस्तु के उत्तम गुणों की पूछ नहीं होती, तब प्रायः उत्तम गुण का अभाव होता ही है। प्रत्यक्ष ही देख पड़ रहा है कि देश में नकली और झूठे माल की भरमार हो रही है। कच्चे सलमे सितारे और गोटे पट्टे की टोपी झुकाए भाँति-भाँति के नकली कमखाब आदि के कपड़े और झूठे दुशाले वा सेल्हे डाटे नगर के टुच्चे आज नव्वाबजादों की शान का अनुकरण कर रहे हैं। विलायती पीतल और नाना प्रकार के कच्चे नग और मोतियों के आभूषणों को पहन कर दरिद्र स्त्रियाँ रत्न जटित स्त्रर्णालङ्कार की लालसा सस्ते में पूर्ण करती रजताभरण के स्थान पर जर्मनी चाँदी के कड़े छड़े मनकारती धनी कुलाननाओं परञ्च रानियों से आँखें लड़ाती इठला रही हैं। जिन्हें देख उन्हें अपने सच्चे और बहुमूल्य वस्त्राभूषणों के धारण करने में भी हतोत्साह होना पड़ता है। सारांश झूठों से सच्चों की मान मर्यादा में भ्रम उत्पन्न होता ही है और प्रायशः झूठे सच्चों का स्थान भी ले लेते हैं! सदैव झूठों से सच्चों को हानि होती ही चली आ रही है। जिसकी माँग बढ़ी है उसी की बहुतायत से सृष्टि है। झूठे और सच्चे माल की कटत से कच्चे वा ठोस पदार्थ तथा शिल्प नैपुण्य की न्यूनता होती और उसके कारीगर हतोत्साह होते हैं, क्योंकि उनकी कारीगरी की बिक्री घटती है, सस्ती वस्तु अनेक मध्यस्थित लोगों को अपनी ओर खींच ही लेती हैं। भारतवर्ष का सर्वनाश इसी से हुआ है, विदेशी 'झूठे, भड़कीले तथा सस्ते माल ने यहाँ के व्यवसाय मात्र को डुबो दिया है। आज भी स्वदेशी वस्तु व्यवहार के प्रश्न पर लोग यही उचर देते कि "तनिक स्वदेशी चीजें महँगी मिलती है। परन्तु वे यह नहीं जानते कि