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प्रेमघन सर्वस्व

बढ़ाने में। क्योंकि जब तक राजकार्यालयों में नागरी का सम्यक् प्रचार न होगा हमारी भाषा का प्रेम सर्व सामान्य में कदापि न होगा।

अस्तु, यद्यपि अपने देश के संग देश की भाषा की ऐसी स्थिति कब उत्साहित कर सकती है कि हम अपने पाठकों को विशेष अनुरक्त करने में प्रवृत हों और यदि हों तो हिन्दी की हीन दशा कब उसे उभरने देती कि जो उसके विपरीत फलप्रद हो, और यद्यपि जब ईश्वरेच्छानुसार स्वाभाविक कादम्बिनी की प्रयत्न शून्य वृष्टि ही का अभाव देश में हाहाकार मचा रहा है तब आनन्द कादम्बिनी की वर्षा की प्रयत्नसाध्य न्यूनता कुछ विचित्र नहीं, एवम् यद्यपि प्रायशः इस निष्फल प्रयास पर विशेष हताश होना भी पड़ता, तौभी जब यथा साध्य यत्न करके भी आनुषंगिक हेतुओं से अकृत कार्यता होती तो अधिक खेद होता हमारे पाठक घबराय नहीं क्योंकि वे हमारे पूर्व कथनानुसार देख रहे हैं कि किस प्रकार असम्भव कार्य उसकी कृपा से चटपट सम्भव होते हैं कि जिसे कोई कदाचित् स्वप्न में भी सम्भव नहीं मानता था। अतः वे उसी ईश्वर पर निश्चय रख यह कामना करें कि वह कादम्बिनी को सब विनों से रहित और सब सद्गुणों से युक्त कर उन के मनोरञ्जन की हेतु करे। भारत के सब दुखों को दूर कर उनके और हमारे हृदय में हर्ष भरे। ईश्वर ऐसा ही करे।

भयंकर दुष्काल

भारत में चारों ओर आज हाहाकार मच रहा है। युक्त प्रदेश इस भयङ्कर दुष्काल का केन्द्र और हमारा यह प्रान्त उसका भी मानो हृदय हो रहा है। कौन कह सकता है कि कितने अभागे कङ्गाल आज विकराल काल के गाल में जा रहे हैं? कितने दीन और अनाथ बालक, बालिका और विधवायें। पेट की ज्वाला को न सँभाल अपने धर्म और प्राण बिसर्जन कर रही हैं। लोग जलते पेट का एक कोना भरने योग्य अन्न के लिए भी मुहँ बाये सोचते हैं कि क्या करें और कैसे भरें। उनके शरीर सुखकर अस्थिपञ्जरावशिष्ट रह गये हैं। कोई उन्हें एक मुट्टी कुत्सित अन्न का भी देनेवाला नहीं दीखता! यद्यपि आजन्म जिन्होंने कभी यह निन्दनीय कार्य नहीं किया था, तौभी आज केवल भिक्षा माँगने के अतिरिक्त और कोई उपाय उन्हें नहीं सूझता है। जिन्हें यह साहस भी नहीं वे केवल यमराज ही का आह्वान करते हैं। ये भारत की पवित्र भूमि के वे लोकोत्तर सुसन्तान हैं कि जिन्हें आज कल के पापी