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नवीन वर्षारम्भ

समय की निर्लज्जता और जघन्यता का व्यवहार ज्ञात नहीं और जिनके जीने की अवधि घर के कुछ बचे खुचे गहने कपड़े और बरतन भाँड़े की विक्री ही की समाप्ति तक अटल है! किन्तु जब उन्हें कोई आधे चौथाई दाम पर भी लेनेवाला ढूढ़ने से नहीं मिलता तब उनकी ब्याकुलता की सीमा कैसे रह सकती है? क्योंकि सामान्य और सम्पन्न लोगों को भी जब आज अपना व्यय निभाना कठिन प्रतीत होता है, तब ऐसा ऋय वा व्यापार सहायता या परोपकार किसी से कैसे हो सकता है? केवल कुछ धनिकों के अतिरिक्त ६ और ७ सेर की बिक्री के अन्न से कब किसे पेट भर भोजन प्राप्त हो सकता है? हाय! भारत की रत्नगर्भा वसुन्धरा! तेरी यह कैसी दुर्दशा है?

यद्यपि १८६७ ई॰ का दुष्काल बड़ा भयङ्कर माना गया था, जिसका किञ्चित वर्णन हमारी "हार्दिक हर्षादर्श" में इस प्रकार हुआ है;—

परयो अकाल कराल वहूँदिसि महा भयङ्कर।
जस नहिं देख्यो, सुन्यो कबहुँ कोउ भारतीय नर॥
कहैं अन्न की कौन कथा? जब कन्द, मूल, फल।
फूल, साग अरु पात भयो दुर्लभ इन कहँ मल॥
हरे हरे वन तृन चरि सूखे बीज घास के।
खाय अधाय न सके किए थल स्वच्छ पास के॥
दूर दूर के कानन कदि तरु- पातन चूसे।
तिनकी लालनि छोलि चले जनु सम्पति मूसे॥
पहुँचे घर ले ताहि कुटि अरु पीसि पकाये।
रुदत वृद्ध शलकन ख्याय कोउ भाँति चुपाये॥
या विधि पसु गन के जीवन आधार हाय हरि।
बिन चारे पसु मारिं, जिए का दिन सँतोष करि॥
पै जब याहू सों निरास ये भये अभागे!
लंघन करि करि त्राहि त्राहि हरि! टेरन लागे॥
कृषिकारन की होय भयङ्कर दसा जबै इमि।
भिच्छुक गन के रहैं प्रान फिर तौ भाषौ किमि?
पेटः चपेट चोर, डाकू बनि कितने धाये!
लूटि पाटि जिन धनिक जन दीन बनाये॥
मरे किते थन सोच, किते बिन अन्न, बिना जल।
दिना वसन, गृह, शीत रोग सों है अति निर्बल॥