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प्रेमघन सर्वस्व

हाहाकार मच्यो चारहुँ दिसि महा प्रलय सम।
बचे भारती नरन जियन की रही आस कम॥
खोय मध्यवित लोग, बसन, भूषन, पसु, गृह, थल।
मान बिबस मरिबो मान्यो भिच्छाटन सो मल॥
सहि न सके जब भूख पीर कातर हिय है करि।
सपरिवार करि आत्मधात गये सुख सो मरि॥

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जे धनहीन कुलीन दीन बिन काज परे घर।
बिना आय कोउ भॉति खाय बिन अन्न रहे मर॥
निराधार विधवा परदावारी जे नारी।
बिना अन्न, धन, बिन गति भूखन बिलखनवारी॥
कुल मर्यादा बस अनसम व्रत मानहु ठाने।
बिना प्रकासे भेद मरन निज़ भल जिन जाने॥

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पकी पकाई रोटी निज हाथनि दिखरावत।
सहज पादरी लोग दुखिन के चित ललचायत॥
कुलाचार, मर्थ्यादा, जाति, वर्महुँ प्रयास बिन।
लै लेते उनके द्वै द्वै रोटी दै द्वै दिन॥
कहते सब सो "हम कोटिन कृस्तान बनाये।
प्रभु ईसू को मत भारत मैं भल फैलाये"॥
यूरप, अमेरिका वासी कब जानत यह वल?
समझत वह तो "यह इनके उपदेसहि को फल"॥

किन्तु इस बार के दुष्काल ने उसे भी भुला दिया और लोगों को यह निश्चय करा दिया कि बस अब दो एक दुष्काल की कसर और है, फिर तो मारत का वारा-न्यारा हो जाना ही अटल है। देश की ऐसी दुर्दशा देख प्रजा जैसी उद्विग्न हुई है उसके वर्णन की आवश्यकता नही, तौ उसका मूल कारण छिपा और उस पर दूसरी रगत ला भारत के गारत करनेवाले लोग आज जिस बेसुरी तान को अलाप रहे हैं—यद्यपि वह उक्त कष्ट के घाव पर लवण कण विकीर्ण करना है, किन्तु जिस भारत के दुर्देव ने यहाँ के लोगों पर यह तथा अन्य अनसुनी अनेक आपत्ति सकेल दी है,