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दृश्य, रूपक वह नाटक

करके आप रूप बन जाते और पूर्व कवि कीर्ति का कलेवा करना चाहते, यदि नाम का भी अनुवाद किया जाय तो पूर्व अंश कुछ रहै, पर विवरण हो तो भी चिन्ता नहीं, पर जानना चाहिए कि चाहे अनुवाद हो या कल्पित, परन्तु नाटक की तो कुछ लिखावट ही जुड़ी है, यह साहब जज की तज़वीज नहीं कि फ़र्राटे से तर्जुमा करते चले जाइये, यह तो कविता है कुछ बुद्धि को क्लेश दीजिए और दिल को दौड़ा कर कुछ करतूत कर दिखाइये, "सत्तगुर दत्त शिव दत्तदाता" से काम नहीं चलने का, ऐसी भी हथ-लपकौअल ठीक नहीं कि जो बेतरह उधर से कुछ उड़ा लिया और इधर ठूस दिया और असल में कुछ काट छाँट किया, और बदले उसके कुछ अपनी अकल लगा दिया। किन्तु जिस ग्रन्थ का आप अनुवाद करना चाहते और वैसे ही रखते, अवश्य उस श्वेत स्वच्छ वस्त्र को सुन्दर हल्के गुलाबों (प्याज़ा) रङ्ग से रङ्ग कर, सुशोभित कीजिए, पर ऐसा अमौआ की बोर न बोरिये कि धुलाने पर भी हाय हाय २ मँच जाय, और अपने श्रम के संग कागज़ का दाम, छापने वाले, लेने वाले, पढ़ने वाले, सुनने वाले, खेलने वाले और देखने वालों को भी हैरान परीशान, तंग और तबाह न कर चलिए, निश्चय जानिए कि योग्य कवि के कविता के अनुवाद का योग्य ही कवि का होना अत्यन्तावश्यक है।

अब आगे चलिए और नवीन रचयिताओं के रचित नवीन नाटकों की और ध्यान दीजिए।

प्रथम अभी नवीन नाटक जो सच पूछिए तो कोई उत्तम श्रेणी का ऐसा नहीं बना कि जिसका नाम हम यहाँ बतलावे, किन्तु मध्यम श्रेणी के भी कम है, परन्तु जिन नाटकों की गणना कर यह समझा जाता है कि इतने नाटक नवीन भाषा में रचे गये जब उनपर ध्यान दीजिए तो केवल इस भाषा के उपहास, हीनता, वा दोष प्रगट करने और इसके गौरव के नाश करने के सिवा और कुछ उनसे लाभ नहीं हैं। क्या आपने ग्रामी पाठशाला नाटक, शिक्षादान बा जयनारसिंह सबके गुरू गोवर्धनदास, इत्यादि को कभी नहीं देखा कि कोई तो दीदी! बहिनी! ऐसे ऐसे मेहरऊ शब्द से व्यर्थ भरे हैं, कि जिन्है लिखते कलम को भी लज्जा आती है, और ग्रन्थकर्ता महाशय ने इस पर भी न सन्तोष कर गाली मुफ्ते और अत्यन्त असभ्य असभ्य शब्दों को लिखकर इच्छा अपनी पूरी को है, माना कि वे प्रहसन कह इनके दोषों को छिपाते हैं, पर क्या प्रहसन उस रूपक को कहते हैं कि जिसमें गाली हो? कभी नहीं? ऐसे भनाटक केवल फाड़ कर फेंक देने के सिवा और किसी