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प्रेमघन सर्वस्व

हैं कि जो केवल उन्हीं के लिए आवश्यक हैं। प्रथम हमारे भाषा के नाटक लिखने वालों के अर्थ भाषा दृश्य काव्य के निरूपण, और लक्षण तथा भेद, रीति, नियम और उदाहरण का बतलाने वाला कोई साहित्य का ग्रन्थ नहीं, और जो संस्कृत में "षष्ठ परिच्छेद" साहित्य दर्पण में श्री विश्वनाथ कविराज रचित, दश रूपक सूत्र इत्यादि हैं, अब उनमें बहुत से गड़बड़ समय और भाषा परिर्वतन के कारण हो गये, और कितनी बातों का विरोध पड़ गया; अतएव मुख्य तो इनका आश्रय लेकर और उस समय से इधर के बने नाटक तथा अंगरेज़ी, बंगला, इसी रीत से हमारी भाषा के भी (जो हैं) और गुजराती, महाराष्ट्री से भी जाँच कर नये तरह पर खास कर इस नागरी भाषा में कोई ग्रन्थ होना अत्यन्त आवश्यक है।

यही कारण है जो कि "मन माना घर जाना" वाली मसल लोग किया करते और मनमन्ता प्रबन्ध और रीत नित्य निकाले चले जाते हैं। किसी ने प्रस्तावना फुज़ूल समझी तो कोई लक्षण मात्र को अनुचित ठहरा मुख्य केवल अपनी बुधि ही को सर्वस्व जान लिया, कोई ट्रेजडी की लालसा के मारे सिन्दूर दान के बाद जैमाल डाल बेमतलब भी भीतर से हाय हाय पुकार करा नाहक नायक को मार डालेंगे और नायिका को बालरण्डा बनावेंगे, न परस्पर नायक नायिका की प्रीत का वर्णन वा दर्शन, न कुछ उसका मतलब न प्रयोजन खुलेगा पर वह अपना काम कर जाँयगे। कहाँ तक कहै कि कदाचित बालू चाभने में स्वाद हो और विष बुझी बर्छी में कुछ कष्ट न हो पर ऐसी कविता का हाल तो फिर अनुभव किया हुआ जन जान; कोई नाटक विरहे का मजा लाते, कोई प्रहसन से होली के कबीरों को भी ल जाते हैं; अब ऐसी अवस्था में वे ग्रन्थ कैसे मनोरञ्जक हो सकते हैं, और जन जड़ की यह दशा तब शाखा अर्थात् अभिनय की इसके सिवा क्या हाल होगी अनुमान से जान लीजिए, पर यही बड़े शोच का स्थान है कि ऐसे ही नाटकों के अभिनय करने से मंडलियाँ अपने को कृतार्थ मानतीं और इन्हीं को दिल से उत्तमोत्तम जानती, पस अब लाचारी के सिवा और कौन चारा है।

जानना चाहिए कि नाटक वहाँ तक नहीं है कि जहाँ तक उसमें नक़ल पन आवै, किन्तु नाटक और अभिनय वह वस्तु है कि जब देखने वाले को इसका परिज्ञान न रह जाय कि हम नाटक देखते हैं या सत्य लीला; जिसके शब्द शब्द से रस चूता और पद पद पर नये आनन्द का मज़ा मिलता जाय और देखने वाले उस रस में रंग कर तनमय दशा को प्राप्त हो जाँय, अवश्य