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प्रेमघन सर्वस्व



मन की आँखै अभी त्रिवेणी के चित्र विचित्र वायु से फड़फड़ाते पताकों में से वाञ्छित चिन्ह को दूर रही हैं, नाव, त्मड़ो, तिलगे, पंखो, मोर, चौपड़ इत्यादि पर आँखें चौकन्नी हो उस एक पर विश्राम लेतीं। प्रातःकाल रेल के पुल पर घर-घराती गाड़ी धीमे धीमे मानों बोझ के मारे भाड़े के घोड़ों सी चलती यात्रियों की आँखों को एक बार इस तीर्थराज की ओर फेर देतीं। दुर्ग के पूर्व त्रिवेणी अपनी गौरव युक्त झांकी को कोहिरे से आवेष्ठित किये हुए हैं। जान पड़ता है कि अकबर का प्रबल प्राचीन दुर्ग विद्रोही जहाजों से जो अपने विशाल पताकों को चढ़ाए हुए हैं, आक्रमित है। मेले का किर्र घोर कलकल का अनुकरण कर रहा है, बाल पतंग की अरुण किरणें जो सेना झूसी के वनों से विस्फुटिन हो कोहिरे में धँसी हैं विद्रोही सेना प्रयुक्त लक्ष्य अग्निवारण सम दुर्ग को लक्ष्य किये सी जान पड़ रही हैं। सारी त्रिवेणी मानों तापों के धूम उदमन करने से अन्धकार मय हो गई है। दुर्ग के पूर्वीय फाटक से बटराज के पूजनार्थ घुसते आर्य सन्तानों को देख यही अनुमान होता है कि विद्रोही बल ने दुर्ग को पराजय किया।

थोड़े काल में सूर्य के आतर से यह झोना आवरण उठा लिया जाता और दर्शकों के निमिर धाईधावा के मन्दिरों के पट सा खुल जाता तब त्रिवेणी अपने अनुपम छटा को दिखलाती है। कहीं पञ्जाविन अपने घटन्नेदार पाया जामों को उतार एक आदनी मात्र ओढ़े मेले में सिमटी हुई जल से आहत प्रौढ़ शरीर के प्रत्येक अंग को दिखा "लोला निलज्ज लखावहीं" क्या इस देश की स्त्रियाँ स्नान नहीं करती हैं? पर इस प्रकार नहीं कि ऐसे भारी मेलों में घर से भी बुरी रीति से स्नान करे। क्या उनके पुरुषों को ऐसी रीति के विरुद्ध शिक्षा देना उचित नहीं? क्या भारी सारी जिससे शरीर भी ढ़क सके, पहिनना बुरा है? कहीं रामरज से रंगे कुंडल किरीट मुकुट लगाये, श्री रामचन्द्र, श्री लक्ष्मण जी बनाये बन्टा बजाते पाखण्डी उदर पोषणार्थ हमारे प्राचीन मत का उपहास सा करते दिखाते हैं। परन्तु प्रेम से पगे दृढ नियमी हिन्दुओं को तो इस पुण्य पर्व के अवलोकनार्थ स्वर्ग को छोड़ भगवान् स्वयं आये से जान पड़ते हैं।

कहीं नग्न शरीर नागा लोगों का अखाड़ा हरहर करते निकल रहा है। इन्हें देख जी में बलात्कार तत्काल यही भावना होती कि—ऐसे ही आए हैं और ऐसे ही जायगे? इस नश्वर जीवन की ममता क्षण भर को बिदा हो जाती और उनकी सौम्य मूर्ति पर लोचन ठक से बच जाते। पर क्या यह भावना