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हमारे देश की भाषा और अक्षर

तुर्की, आदि भाषाओं के शब्द सम्मिलित होगये, उसी प्रकार उनके स्थान पर अब अंग्रेजी भाषा के शब्द भी मिलें, न कि अनेक विदेशी भाषाओं की वृद्धि होते होते हमारे देश की भाषा ही का लोप हो जाय।"

परन्तु जैसा कि हम ने प्रथम कहा है सब प्रकार की सुगमता और न्याय तभी होगा, जब कि हिन्दी भाषा के संग हिन्दी ही, अर्थात् नागरी के अक्षरों, का प्रचार इस देश के राजकीय न्यायालयों में किया जायगा। कुछ हमारी ही सम्मति ऐसी नहीं है बरंच अन्यदेशी निष्पक्ष न्यायवान मात्र की ऐसी ही सम्मति है, जैसे कि-२६ जनवरी का इन्डियन मिरर लिखता है—

"हम लोग सुनते हैं कि पश्चिमोत्तर देश की गवनमेन्ट ने यह आज्ञा दी है कि वहाँ के राजकीय न्यायालयों में फारसी अक्षरों के स्थान में रोमन का प्रचार किया जाय। हम लोग अधिक प्रसन्न होते यदि हिन्दी अथवा कैथी का प्रचार किया गया होता, क्योंकि उसकी लिखावट बहुत अच्छी और शुद्ध होती है, और जैसे बोली जाती है, वैसी ही लिखी जाती है; परन्तु खेद का विषय है कि हिन्दी के विरोधियों की संख्या उन प्रान्तों में इतनी अधिक है कि जिसके कारण उसका प्रचार होना कठिन है, यद्यपि फारसी अक्षारों की लिखावट शीघ्रता पूर्वक होती है, परन्तु उसको लिखावट स्वच्छ नहीं होती है, और एक बिन्दी के कारण उसमें श्राकाश पाताल का अन्तर पड़ जाता है, और एक शब्द नाना प्रकार पर पढ़ा जाता है। ये सब अवगुण, इसमें कुछ सन्देह नहीं है, कि रोमन के प्रकार से भी दूर हो जायेंगे। कई एक अभियोगों में ऐसा सुनने में आया है, कि फारसी अक्षरों में लिन्ने हुये दस्तावेजों में सरलता पूर्वक जाल किया जा सकता है, और कोई जाल करने वाले को पकड़ नहीं सकता है। अतः हम लोग पाश्चिमोत्तर देश की गवर्नमेण्ट को उसके इस नवीन प्रस्ताव के लिये अान्तरिक भाव से धन्यवाद देते हैं।"

निदान यह चिर दिन का उत्थापित प्रस्ताव स्वयम् फिर से उठ खड़ा हश्रा, और प्रादेशिक साम्राज्य बिना किसी के कुछ कहे सुने ही इस पोर अन्याय और अन्धेर के सुधार पर स्वयम् सन्नद्ध हुआ। परन्तु देश के लोग अचेत ही सो रहे हैं। हिन्दू प्रजा अपने दुर्भाग्य के मद से उन्मत ऊँघ रही है। अनेक हिन्दी-हितैषी लोग, जो न जाने ऊपर ही से उसके लिये उमास लिया करते हैं, मौन मारे बेठे हैं। प्रत्येक सप्ताह कमरे की चाँदनी के तुल्य चार चार हाथ के लम्बे चौड़े कागज काला करने वाले हिन्दी पत्र सम्पादक लोग भी इसके लिये लेखनी चलाने में सौगन्ध मी खाये चुप हैं! चाहे व्यर्थ की