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भारतेन्दु अवसान

फिके मन गुजर गाहे दुनिया में है मौत रह जन, छुटा क्या अजवरूह से जामए तन, लुटे राह में कारवाँ कैसे कैसे"। कबीर ने भी बहुत ही टीक कहा है।

दोहा

|दस द्वारे को पींजरा तामैं पंछी पौन।
रहिबे को अचरज महा गये अचम्मा कौन॥

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य का शरीर अवश्य अनित्य और नाश होने वाला है, परन्तु जीवन पर्यन्त मनुष्य के मन में इसका मान कदापि नहीं होता कि हमें भी एक दिन भरना होगा। महाराजा युधिष्ठिर ने बहुत ही ठीक कहा—कि दुनिया देखती है कि सब लोग मरते चले ही जाते हैं, पर तो भी उन्हें रहने की उम्मेद बनी ही रहती है इससे बढ़ कर आश्चर्य क्या है। परन्तु वह हरिश्चन्द्र कि जिसे लोगों ने यथार्थ खिताब "माहेहिन्द" अर्थात् भारतेन्दु पद प्रदान किया, नित्य अपने मृत्यु के दिन को याद करता, और यही कारण था कि वह अपने निश्चित सिद्धान्तों का पक्का, और अपने कर्तव्य कार्यों के करने में सदैव बद्ध परिकर रहा। मेरी इनदोनों बातों का प्रमाण उसके एक कवित्त का यह पद है—"कहेंगे सवैही नैन नीर भरि भरि पाछे, प्यारे हरिचन्द की कहानी रह जायगी" सच है! "जीते जी कद्र बरशा की नहिं होती प्यारे याद आएगी तुझे मेरी वफा मेरे बाद।"

इसमें सन्देह नहीं कि दुनियाँ मुरदा परस्त है, जैसे उसने भी अपने जीत संसार के सलूक यही कहा कि—हा! प्यारे हरिश्चन्द्र का संसार ने कुछ भी गुण रूप न समझा और सचमुच अप्राप्त वस्तु की अधिक चाह होती है जैस आज उस मृत महामान्य का शोक सबको व्याकुल कर रहा है। लेकिन ऐसे मनुष्य जिनकी कीर्ति संसार को उसकी याद दिलाया करती है, पूर्ण रूप से काल भी उसके नाश में समर्थ नहीं है, और सत्कवि तो मानो मरतेही नहीं यथाः—

"जिन्दः दिल लोग पढ़ा करते हैं गजलै दिनरात, कभी शायर नहीं मरता व खुदा सच है या बात! आबदारी से हैं हर मिसरये तर आबेहयात, नाजगी है सुखने कोहना में यः बादे वफात; लोग अकसर मेरे जाने का गुमां रखते है।।

१९४२ वै॰ श्रा॰ का॰