चौधरी की एक न चली। आबदी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबदीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कमसिन उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो गजब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों को पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गयी, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पाँच रुपये से कम तो शायद ही किसी ने दिये हों। पिताजी के सामने भी वह जा बैठी। मैं तो मारे शर्म के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें; किन्तु यह क्या हो रहा है! ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं! पिताजी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदु हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखी था। उनकी आँखों से अनुराग टपका पड़ता था। उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था; मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबदी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ। आबदी तो उनके गले में बाहें डाले देती है। अबकी पिताजी जरूर उसे पीटगे। चुडै़ल को जरा भी शर्म नहीं!
एक महाशय ने मुस्कराकर कहा-यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी आबदीजान! और दरवाजा देखो।
बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही और बहुत ही उचित कही; लेकिन न जाने क्यों पिताजी ने उनकी ओर कुपित नेत्रों से देखा और मूँछों पर ताव दिया। मुँह से तो कुछ न बोले; पर उनके मुख को आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों में कह रही थी-तू बनिया मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं, रुपये की हकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आजमा ले। तुझसे दूनी रकम न दे डालें तो मुँह न दिखाऊँ! महान आश्चर्य! घोर अनर्थ! अरे जमीन, तू फट क्यों नहीं जाती! आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों नहीं आ