जाती! पिताजी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज़ निकाली और सेठजी को दिखाकर आबदीजान को दे डाली। आह! यह तो अशर्फी है। चारों ओर तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गये। पिताजी ने मुँह की खाई, इसका निश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिताजी ने एक अशर्फी निकालकर आबदीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्व-युक्त उल्लास था, मानों उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिताजी तो हैं, जिन्होंने मुझे आरती में १) डालते देखकर मेरी ओर इस तरह देखा था, मानों मुझे फाड़ ही खायेंगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फर्क आता था और इस समय इस घृणित, कुत्सित, निन्दित व्यापार पर वह गर्व और आनन्द से फूले न समाते थे।
आबदीजान ने एक मनोहर मुसकान के साथ पिताजी को सलाम किया और आगे बढ़ी; मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मारे शर्म के मेरा मस्तक झुका जाता था। अगर मेरी आँखों देखी बात न होती, तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था उसकी रिपोर्ट अम्मा से जरूर करता था, पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुःख होगा।
रात-भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था, चलकर देख पर साहस न होता था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी ने पिताजी का जिक्र छेड़ दिया तो मैं क्या करूँगा!
प्रातःकाल रामचन्द्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा। डर रह था कि कहीं रामचन्द्र चले न गये हों। पहुँचा तो देखा, तवायफों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरत से नाक-मुँह बनाये उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख न उठायी। सीधा रामचन्द्र के पास पँहुचा। लक्ष्मण