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110 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

दयानाथ और जागेश्वरी, दोनों ने जालपा को समझाया; पर वह जाने पर राजी न हुई। तब दयानाथ झुंझलाकर बोले-यहां दिन-भर पड़े-पड़े रोने से तो अच्छा है।

जालपा-क्या वह कोई दूसरी दुनिया है, या मैं वहां जाकर कुछ और हो जाऊंगी। और फिर रोने से क्यों डरूं? जब हंसना था, तब हंसती थी, जब रोना है, तो रोऊंगी। वह काले कोसों चले गए हों; पर मुझे तो हरदम यहीं बैठे दिखाई देते हैं। यहां वे स्वयं नहीं हैं, पर घर की एकएक चीज में बसे हुए हैं। यहां से जाकर तो मैं निराशा से पागल हो जाऊंगी।

दीनदयाल समझ गए यह अभिमानिनी अपनी टेक न छोड़ेगी। उठकर बाहर चले गए। संध्या समय चलते वक्त उन्होंने पचास रुपये का एक नोट जालपा की तरफ बढ़ाकर कहा-इसे रख लो, शायद कोई जरूरत पड़े।

जालपा ने सिर हिलाकर कहा-मुझे इसकी बिल्कुल जरूरत नहीं है, दादाजी। हां, इतना चाहती हूं कि आप मुझे आशीर्वाद दें। संभव है, आपके आशीर्वाद से मेरा कल्याण हो। | दीनदयाल की आंखों में आंसू भर आए, नोट वहीं चारपाई पर रखकर बाहर चले आए।

क्वार का महीना लग चुका था। मेघ के जल-शुन्य टुकड़े कभी-कभी आकाश में दौड़ते नजर आ जाते थे। जालपा छत पर लेटी हुई उन मेघ-खंडों की किलोलें देखा करती। चिंता-व्यथित प्राणियों के लिए इससे अधिक मनोरंजन की और वस्तु ही कौन है? बादल के टुकड़े भाति-भांति के रंग बदलते, भांति-भाँति के रूप भरते, कभी आपस में प्रेम से मिल जाते, कभी रूठकर अलग-अलग हो जाते, कभी दौड़ने लगते, कभी ठिठक जाते। जालपा सोचती, रमानाथ भी कहीं बैठे यही मेघ-क्रीड़ा देखते होंगे। इस कल्पना में उसे विचित्र आनंद मिलता। किसी माली को अपने लगाए पौधों से, किसी बालक को अपने बनाए हुए घरौंदों से जितनी आत्मीयता होती है, कुछ वैसा ही अनुराग उसे उन आकाशगामी जीवों से होता था। विपत्ति में हमारा मन अंतर्मुखी हो जाता है। जालपा को अब यही शंका होती थी कि ईश्वर ने भी पापों का यह दंड दिया है। आखिर रमानाथ किसी का गला दबाकर ही तो रोज रुपये लाते थे। कोई खुशी से तो न दे देता। यह रुपये देखकर वह कितनी खुश होती थी। इन्हीं रुपयों से तो नित्य शौक श्रृंगार की चीजें आती रहती थीं। उन वस्तुओं को देखकर अब उसका जी जलता था। यहीं सारे दु:खों की मूल हैं। इन्हीं के लिए तो उसके पति को विदेश जाना पड़ा। वे चीजें उसकी आंखों में अब कांटों की तरह गड़ती थीं, उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थीं।

आखिर एक दिन उसने इन चीजों को जमा किया-मखमली स्लीपर, रेशमी मोजे, तरह-तरह की बेलें, फीते, पिन, कंघियां, आईने, कोई कहां तक गिनाए। अच्छा-खासा एक देर हो गया। वह इस ढेर को गंगा में डुबा देगी, और अब से एक नए जीवन का सूत्रपात करेगी। इन्हीं वस्तुओं के पीछे, आज उसकी यह गति हो रही है। आज वह इस मायाजाल को नष्ट कर डालेगी। उनमें कितनी ही चीजें तो ऐसी सुंदर थीं कि उन्हें फेंकते मोह आता था; मगर ग्लानि की उस प्रचंड ज्वाला को पानी के ये छींटे क्या बुझाते। आधी रात तक वह इन चीजों को उठाउठाकर अलग रखती रही, मानो किसी यात्रा की तैयारी कर रही हो। हां, यह वास्तव में यात्रा ही थी-अंधेरे से उजाले की, मिथ्या से सत्य की। मन में सोच रही थी, अब यदि ईश्वर की दया हुई और वह फिर लौटकर घर आए, तो वह इस तरह रहेगी कि थोड़े-से-थोड़े में निर्वाह हो जाय। एक पैसा भी व्यर्थ न खर्च करेगी। अपनी मजदूरी के ऊपर एक कौड़ी भी घर में न आने देगी। आज से उसके नए जीवन का आरंभ होगा।