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128 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


यही मेरे दोनों लाल हैं।

बुढ़िया के प्रति आज रमा के हदय में असीम श्रद्धा जाग्रत हुई। कितना पावन धैर्य है,कितनी विशाल वत्सलता, जिसने लकड़ी के इन दो टुकड़ों को जीवन प्रदान कर दिया है। रमा ने जग्गो को माया और लोभ में डूबी हुई, पैसे पर जान देने वाली, कोमल भावों से सर्वथा विहीन समझ रखा था। आज उसे विदित हुआ कि उसका हृदय कितना स्नेहमय, कितना कोमल, कितना मनस्वी है। बुढिया ने उसके मुंह की ओर देखा, तो न जाने क्यों उसका मातृ-हृदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा। दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गए। एक ओर पुत्र-स्नेह था, दूसरी ओर मातृ-भक्ति। वह मालिन्य जो अब तक गुप्त भाव से दोनों को पृथक्क किए हुए था, आज एकाएक दूर हो गया।

बुढिया ने कहा-मुंह-हाथ धो लिया है न बेटा। बड़े मीठे संतरे लाई हूँ, एक लेकर चखो तो।

रमा ने संतरी खाते हुए कहा-आज से मैं तुम्हें अम्मां कहा करूगा ।

बुढिया के शुष्क, ज्योतिहीन, ठंडे, कृपण नेत्रों से मोती के-से दो बिंदु निकल पड़े।

इतने में देवीदीन दबे पांव आकर खड़ा हो गया। बुढिया ने तड़पकर पूछा-यह इतने सबेरे किधर सवारी गई थी सरकार की?

देवी ने सरलता से मुस्कराकर कहा-कहीं नहीं, जरा एक काम से चला गया था।

'क्या काम था, जरा मैं भी तो सुनूं, यो मेरे सुनने लायक नहीं है?'

'पेट में दरद था, जरा वैदजी के पास चूरन लेने गया था।'

'झूठे हो तुम, उर्जा उससे जो तुम्हें जानता न हो। चरस की टोह में गए थे तुम।'

'नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूं। तू झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।'

‘तो फिर कहां गए थे तुम?'

‘बता तो दिया। रात खाना दो कौर ज्यादा खा गया था, सो पेट फूल गया, और मीठा मीठा ।

'झूठ है, बिल्कुल झूठ ! तुम चाहे झूठ बोलो, तुम्हारा मुंह साफ कहे देता है, यह बहाना है, चरस, गांजा, इसी टोह में गए थे तुम। मैं एक ने मानेगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे की सझती है, यहां मेरी मरन हुई जाती है। सबेरे के गए-गए नौ बजे लौटे हैं, जानो यहां कोई इनकी लौंडी है।

देवीदीन ने एक झाडू लेकर दुकान में झाडू लगाना शुरू किया, पर बुढ़िया ने उसके हाथ से झाडू छीन लिया और पूछा-तुम अब तक थे कहां? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न देंगी।

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा-क्या करोगी पूछकर, एक अखबार के दफ्तर में तो गया थी। जो चाहे कर ले।

बुढ़िया ने माथा ठोंककर कहा--तुमने फिर वही लत पकड़ी? तुमने कान न पकड़ा था कि अब कभी अखबारों के नगीच न जाऊंगा। बोलो, यही मुंह थी कि कोई और।

'तू बात तो समझती नहीं, बस बिगड़ने लगती है।

'खूब समझती हूं। अखबार वाले दंगा मचाते हैं और गरीबों को जेहल ले जाते हैं। आज बीस साल से देख रही हूं। वहां जो आता-जाता है, पकड़ लिया जाता है। तलासी तो आए दिन हुआ करती है। क्या बुढ़ापे में जेहल की रोटियां तोड़ोगे?'