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कर्मभूमि : 259
 

"हां बेटा, पांच रुपये महीना देते जाते हैं।"

"तो मैं तुम्हें रुपये दिए देता हूं, लेती जाओ। लाला शायद देर में आएं।"

वृद्धा ने कानों पर हाथ रखकर कहा-नहीं बेटा, उन्हें आ जाने दो। लठिया टेकती चली जाऊंगी। अब तो यही आंख रह गई है।

"इसमें हर्ज क्या है? मैं उनसे कह दूंगा, पठानिन रुपये ले गई। अंधेरे में कहीं गिर - गिरा पड़ोगी।"

"नहीं बेटा, ऐसा काम नहीं करती, जिममें पीछे से कोई बात पैदा हो। फिर आ जाऊंगी।"

"नहीं, मैं बिना लिए न जाने दूंगा।"

बुढ़िया ने डरते-डरते कहा तो लाओ दे दो बेटा, मेरा नाम टांँक लेना पठानिन।

अमरकान्त ने रुपये दे दिए। बुढ़िया ने कांपते हाथों से रुपये लेकर गिरह बांधे और दुआएं देती हुई, धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतरी, मगर पचास कदम भी न गई होगी कि पीछे मे अमरकान्त एक इक्का लिए हुए आया और बोला--बूढ़ी माता, आकर इक्के पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें पहुंचा दूं।

बुढ़िया ने आश्चर्यचकित नेत्रों से देखकर कहा- अरे नहीं, बेटा । तुम मुझे पहुंचाने कहां जाओगे | मैं लठिया टेकती हुई चली जाऊंगी। अल्लाह तुम्हें सलामन रखे।

अमरकान्त इक्का ला चुका था। उसने बुढ़िया को गोद में उठाया और इक्के पर बैठाकर पूछा- कहां चलूं?

बुढ़िया ने इक्के के डंडों को मजबूती से पकड़कर कहा--गोवर्धन की सराय चलो बेटा, अल्लाह तुम्हारी उम्र दराज करे। मेरा बच्चा इस बुढ़िया के लिए इतना हैरान हो रहा है। इत्ती दूर से दौड़ा आया। पढ़ने जाते हो न बटा, अल्लाह तुम्हें बड़ा दरजा दे।

पंद्रह-बीस मिनट में इक्का गोवर्धन की सराय पहुंच गया। सड़क के दाहिने हाथ एक गली थी। वहीं बुढ़िया ने इक्का रुकवा दिया, और उतर पड़ी। इक्का आगे न जा सकता था। मालूम पड़ता था, अंधेरे ने मुंह पर तारकोल पोत लिया है।

अमरकान्त ने इक्के को लौटाने के लिए कहा, तो बुढ़िया बोली- नहीं मेरे लाल, इत्ती दूर आए हो, तो पल-भर मेरे घर भी बैठ लो, तुमने मेरा कलेजा ठंडा कर दिया।

गली में बड़ी दुर्गध थी। गंदे पानी के नाले दोनों तरफ बह रहे थे। घर प्रायः सभी कच्चे थे। गरीबों का मुहल्ला था। शहरों के बाजारों और गलियों में कितना अंतर है । एक फूल है-सुंदर, स्वच्छ, सुगंधमय; दूसरी जड़ है-कीचड़ और दुर्गंध से भरी, टेढ़ी-मेढ़ी; लेकिन क्या फूल को मालूम है कि उसको हस्ती जड़ से है?

बुढ़िया ने एक मकान के सामने खड़े होकर धीरे से पुकारा-सकीना । अंदर से आवाज आई--आती हूं अम्मा; इतनी देर कहां लगाई?

एक क्षण में सामने का द्वार खुला और एक बालिका हाथ में मिट्टी के तेल की कुप्पी लिए द्वार पर खड़ी हो गई। अमरकान्त बुढ़िया के पीछे खड़ा था, उस पर बालिका की निगाह न पड़ी, लेकिन बुढ़िया आगे बढ़ी, तो सकीना ने अमर को देखा। तुरंत ओढ़नी में मुंह छिपाती हुई पोछे हट गई और धीरे से पूछा---यह कौन हैं, अम्मां?